
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
शुद्धनिश्चयनियमस्वरूपाख्यानमेतत् । यः परमतत्त्वज्ञानी महातपोधनो दैनं संचितसूक्ष्मकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चय-प्रायश्चित्तपरायणो नियमितमनोवाक्कायत्वाद्भववल्लीमूलकंदात्मकशुभाशुभस्वरूपप्रशस्ता-प्रशस्तसमस्तवचनरचनानां निवारणं करोति, न केवलमासां तिरस्कारं करोति किन्तु निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां निवारणं च करोति, पुनरनवरतमखंडाद्वैतसुन्दरानन्द-निष्यन्द्यनुपमनिरंजननिजकारणपरमात्मतत्त्वं नित्यं शुद्धोपयोगबलेन संभावयति, तस्य नियमेन शुद्धनिश्चयनियमो भवतीत्यभिप्रायो भगवतां सूत्रकृतामिति । (कलश--हरिणी) वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम् । परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम् ॥१९१॥ (कलश--मालिनी) अनवरतमखंडाद्वैतचिन्निर्विकारे निखिलनयविलासो न स्फुरत्येव किंचित् । अपगत इह यस्मिन् भेदवादस्समस्तः तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ॥१९२॥ (अनुष्टुभ्) इदं ध्यानमिदं ध्येयमयं ध्याता फलं च तत् । एभिर्विकल्पजालैर्यन्निर्मुक्तं तन्नमाम्यहम् ॥१९३॥ (कलश--अनुष्टुभ्) भेदवादाः कदाचित्स्युर्यस्मिन् योगपरायणे । तस्य मुक्ति र्भवेन्नो वा को जानात्यार्हते मते ॥१९४॥ यह, शुद्धनिश्चय-नियम के स्वरूप का कथन है । जो परमतत्त्वज्ञानी महातपोधन सदा संचित सूक्ष्म-कर्मों को मूल से उखाड़ देने में समर्थ निश्चय-प्रायश्चित्त में परायण रहता हुआ मन-वचन-काया को नियमित (संयमित) किये होने से भवरूपी बेल के मूल (कंदात्मक) शुभाशुभस्वरूप प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचन रचना का निवारण करता है, केवल उस वचन-रचना का ही तिरस्कार नहीं करता किन्तु समस्त मोह-राग-द्वेषादि पर-भावों का निवारण करता है, और अनवरतरूप से (निरन्तर) अखण्ड, अद्वैत, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर आनन्द-झरते), अनुपम, निरंजन निज-कारण-परमात्मतत्त्व की सदा शुद्धोपयोग के बल से सम्भावना (सम्यक् भावना) करता है, उसे (उस महातपोधन को) नियम से शुद्ध-निश्चय नियम है ऐसा भगवान सूत्रकार का अभिप्राय है । (कलश--हरिगीत)
जो भव्य शुभाशुभस्वरूप वचन-रचना को छोड़कर सदा स्फुटरूप से सहज परमात्मा को सम्यक् प्रकार से भाता है, उस ज्ञानात्मक परम यमी को मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का कारण ऐसा यह शुद्ध-नियम नियम से है ।जो भव्य भावें सहज सम्यक् भाव से परमात्मा । ज्ञानात्मक उस परम संयमवंत को आनन्दमय ॥ शिवसुन्दरी के सुक्ख का कारण परमपरमातमा । के लक्ष्य से सद्भावमय शुधनियम होता नियम से ॥१९१॥ (कलश--हरिगीत)
जो अनवरतरूप से (निरन्तर) अखण्ड अद्वैत चैतन्य के कारण निर्विकार है उसमें (उस परमात्मपदार्थ में) समस्त नयविलास किंचित् स्फुरित ही नहीं होता । जिसमें से समस्त भेदवाद (नयादि विकल्प) दूर हुए हैं उसे (उस परमात्म-पदार्थ को) मैं नमन करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकार से भाता हूँ ।जो अनवरत अद्वैत चेतन निर्विकारी है सदा । उस आत्म को नय की तरंगें स्फुरित होती ही नहीं ॥ विकल्पों से पार एक अभेद जो शुद्धातमा । हो नमन, वंदन, स्तवन अर भावना हो भव्यतम ॥१९२॥ (कलश--हरिगीत)
यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है -- ऐसे विकल्प जालों से जो मुक्त (रहित) है उसे (उस परमात्मतत्त्व को) मैं नमन करता हूँ ।यह ध्यान है यह ध्येय है और यह ध्याता अरे । यह ध्यान का फल इसतरह के विकल्पों के जाल से ॥ जो मुक्त है श्रद्धेय है अर ध्येय एवं ध्यान है । उस परम आतमतत्त्व को मम नमन बारंबार है ॥१९३॥ (कलश--हरिगीत)
जिस योग-परायण में कदाचित् भेदवाद उत्पन्न होते हैं (जिस योगनिष्ठ योगी को कभी विकल्प उठते हैं), उसकी अर्हत् के मत में मुक्ति होगी या नहीं होगी वह कौन जानता है ?
त्रिविध योगों में परायण योगियों को कदाचित् । हो भेद की उलझन अरे बहु विकल्पों का जाल हो ॥ उन योगियों की मुक्ति होगी या नहीं कैसे कहें । कौन जाने क्या कहे - यह समझ में आता नहीं ॥१९४॥ |