+ परम मुमुक्षु का स्वरूप -
जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥126॥
यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२६॥
स्थावर तथा त्रस सर्व जीवसमूह प्रति समता लहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ॥१२६॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [स्थावरेषु] स्थावर [वा] अथवा [त्रसेषु] त्रस [सर्वभूतेषु] सर्व जीवों के प्रति [समः] समभाववाला है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।
Meaning :  He, who is evenly disposed. towards all living beings, mobile and immobile, (is said to have) steadfast equanimity, according to the preaching of the omniscient.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
परममाध्यस्थ्यभावाद्यारूढस्थितस्य परममुमुक्षोः स्वरूपमत्रोक्तम् ।

यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः विकारकारणनिखिलमोहरागद्वेषाभावाद् भेद-कल्पनापोढपरमसमरसीभावसनाथत्वात्र्रसस्थावरजीवनिकायेषु समः, तस्य च परमजिन-योगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धमिति ।
(कलश--मालिनी)
त्रसहतिपरिमुक्तं स्थावराणां वधैर्वा
परमजिनमुनीनां चित्तमुच्चैरजस्रम् ।
अपि चरमगतं यन्निर्मलं कर्ममुक्त्यै
तदहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ॥२०४॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
केचिदद्वैतमार्गस्थाः केचिद्द्वैतपथे स्थिताः ।
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्त मार्गे वर्तामहे वयम् ॥२०५॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
कांक्षंत्यद्वैतमन्येपि द्वैतं कांक्षन्ति चापरे ।
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्त मात्मानमभिनौम्यहम् ॥२०६॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम् ।
आत्मनैवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहुः ॥२०७॥
(कलश--शिखरिणी)
विकल्पोपन्यासैरलमलममीभिर्भवकरैः
अखंडानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः ।
अयं द्वैताद्वैतो न भवति ततः कश्चिदचिरात्तमेकं
वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम् ॥२०८॥
(कलश--शिखरिणी)
सुखं दुःखं योनौ सुकृतदुरितव्रातजनितं
शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च ।
यदेकस्याप्युच्चैर्भवपरिचयो बाढमिह नो
य एवं संन्यस्तो भवगुणगणैः स्तौमि तमहम् ॥२०९॥
(कलश--मालिनी)
इदमिदमघसेनावैजयन्तीं हरेत्तां
स्फुटितसहजतेजःपुंजदूरीकृतांहः- ।
प्रबलतरतमस्तोमं सदा शुद्धशुद्धं
जयति जगति नित्यं चिच्चमत्कारमात्रम् ॥२१०॥
(कलश--पृथ्वी)
जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारकं
महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम् ।
विमुक्त भवकारणं स्फुटितशुद्धमेकान्ततः
सदा निजमहिम्नि लीनमपि सद्रशां गोचरम् ॥२११॥



यहाँ, परम माध्यस्थभाव आदि में आरूढ़ होकर स्थित परम मुमुक्षु का स्वरूप कहा है ।

जो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि (परम सहज वैराग्यवन्त मुनि) विकार के कारणभूत समस्त मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण भेद-कल्पना विमुक्त परम समरसीभाव सहित होने से त्रस-स्थावर (समस्त) जीव-निकायों के प्रति समभाववाला है, उस परम जिनयोगीश्वर को सामायिक नाम का व्रत सनातन (स्थायी) है ऐसा वीतराग सर्वज्ञ के मार्ग में सिद्ध है ।

(कलश--हरिगीत)
जिन मुनिवरों का चित्त नित त्रस-थावरों के त्रास से ।
मुक्त हो सम्पूर्णत: अन्तिम दशा को प्राप्त हो ॥
उन मुनिवरों को नमन करता भावना भाता सदा ।
स्तवन करता हूँ निरन्तर मुक्ति पाने के लिए ॥२०४॥
परम जिनमुनियों का जो चित्त (चैतन्य-परिणमन) निरंतर त्रस-जीवों के घात से तथा स्थावर जीवों के वध से अत्यन्त विमुक्त है, और जो (चित्त) अंतिम अवस्था को प्राप्त तथा निर्मल है, उसे मैं कर्म से मुक्त होने के हेतु नमन करता हूँ, स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकार से भाता हूँ ।

(कलश--दोहा)
कोई वर्ते द्वैत में अर कोई अद्वैत ।
द्वैताद्वैत विमुक्तमग हम वर्तें समवेत ॥२०५॥
कोई जीव अद्वैतमार्ग में स्थित हैं और कोई जीव द्वैतमार्ग में स्थित हैं; द्वैत और अद्वैत से विमुक्त मार्ग में (जिसमें द्वैत या अद्वैत के विकल्प नहीं हैं ऐसे मार्ग में) हम वर्तते हैं ।

(कलश--दोहा)
कोई चाहे द्वैत को अर कोई अद्वैत ।
द्वैताद्वैत विमुक्त जिय मैं वंदूँ समवेत ॥२०६॥
कोई जीव अद्वैत की इच्छा करते हैं और अन्य कोई जीव द्वैत की इच्छा करते हैं; मैं द्वैत और अद्वैत से विमुक्त आत्मा को नमन करता हूँ ।

(कलश--सोरठा )
थिर रह सुख के हेतु अज अविनाशी आत्म में ।
भाऊँ बारंबार निज को निज से निरन्तर ॥२०७॥
मैं, सुख की इच्छा रखनेवाला आत्मा, अजन्म और अविनाशी ऐसे निज-आत्मा को, आत्मा द्वारा ही, आत्मा में स्थित रहकर बारम्बार भाता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
संसार के जो हेतु हैं इन विकल्पों के जाल से ।
क्या लाभ है हम जा रहे नयविकल्पों के पार अब ॥
नयविकल्पातीत सुखमय अगम आतमराम को ।
वन्दन करूँ कर जोड़ भवभय नाश करने के लिए ॥२०८॥
भव के करनेवाले ऐसे इन विकल्प-कथनों से बस होओ, बस होओ । जो अखण्डानन्द स्वरूप है वह (यह आत्मा) समस्त नय-राशि का अविषय है; इसलिये यह कोई (अवर्णनीय) आत्मा द्वैत या अद्वैतरूप नहीं है (द्वैत-अद्वैत के विकल्पों से पर है ) । उस एक को मैं अल्प काल में भव-भय का नाश करने के लिये सतत वंदन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
अच्छे बुरे निजकार्य से सुख-दु:ख हों संसार में ।
पर आतमा में हैं नहीं ये शुभाशुभ परिणाम सब ॥
क्योंकि आतमराम तो इनसे सदा व्यतिरिक्त है ।
स्तुति करूँ मैं उसी भव से भिन्न आतमराम की ॥२०९॥
योनि में सुख और दुःख सुकृत और दुष्कृत के समूहसे होता है (चार गति के जन्मों में सुख-दुःख शुभाशुभ कृत्यों से होता है ) । और दूसरे प्रकार से (निश्चयनय से), आत्मा को शुभ का भी अभाव है तथा अशुभ परिणति भी नहीं है, क्योंकि इस लोक में एक आत्मा को (आत्मा सदा एकरूप होनेसे उसे) अवश्य भव का परिचय बिलकुल नहीं है । इसप्रकार जो भवगुणों के समूह से संन्यस्त है (जो शुभ-अशुभ, राग-द्वेष आदि भव के गुणों से, विभावों से रहित है) उसका (नित्य शुद्ध-आत्मा का) मैं स्तवन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
प्रगट अपने तेज से अति प्रबल तिमिर समूह को ।
दूर कर क्षणमात्र में ही पापसेना की ध्वजा ॥
हरण कर ली जिस महाशय प्रबल आतमराम ने ।
जयवंत है वह जगत में चित्चमत्कारी आतमा ॥२१०॥
सदा शुद्ध-शुद्ध ऐसा यह (प्रत्यक्ष) चैतन्य-चमत्कार मात्र तत्त्व जगत में नित्य जयवन्त है, कि जिसने प्रगट हुए सहज तेजःपुंज द्वारा स्व-धर्म त्यागरूप (मोहरूप) अति-प्रबल तिमिर-समूह को दूर किया है और जो उस अघसेना (पाप के सेना) की ध्वजा को हर लेता है ।

(कलश--हरिगीत)
गणधरों के मनकमल थित प्रगट शुध एकान्तत: ।
भवकारणों से मुक्त चित् सामान्य में है रत सदा ॥
सद्दृष्टियों को सदागोचर आत्ममहिमालीन जो ।
जयवंत है भव अंतकारक अनघ आतमराम वह ॥२११॥
यह अनघ (निर्दोष) आत्मतत्त्व जयवन्त है, कि जिसने संसार को अस्त किया है, जो महामुनिगण के अधिनाथ के (गणधरों के) हृदयारविन्द में स्थित है, जिसने भव का कारण छोड़ दिया है, जो एकान्त से शुद्ध प्रगट हुआ है (जो सर्वथा - शुद्धरूप से स्पष्ट ज्ञात होता है) तथा जो सदा (टंकोत्कीर्ण चैतन्य सामान्यरूप) निज महिमा में लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को गोचर है ।