+ आत्मा ही उपादेय है -
जस्स संणिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥127॥
यस्य सन्निहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२७॥
संयम-नियम-तप में अहो ! आत्मा समीप जिसे रहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ॥१२७॥
अन्वयार्थ : [यस्य] जिसे [संयमे] संयम में, [नियमे] नियम में और [तपसि] तपमें [आत्मा] आत्मा [सन्निहितः] समीप है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।
Meaning : He, who is drawn close to his Soul during the observance of self-control, vows and austerities

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्राप्यात्मैवोपादेय इत्युक्त : ।

यस्य खलु बाह्यप्रपंचपराङ्मुखस्य निर्जिताखिलेन्द्रियव्यापारस्य भाविजिनस्य पाप-क्रियानिवृत्तिरूपे बाह्यसंयमे कायवाङ्मनोगुप्तिरूपसकलेन्द्रियव्यापारवर्जितेऽभ्यन्तरात्मनि परिमितकालाचरणमात्रे नियमे परमब्रह्मचिन्मयनियतनिश्चयान्तर्गताचारे स्वरूपेऽविचलस्थितिरूपे व्यवहारप्रपंचितपंचाचारे पंचमगतिहेतुभूते किंचनभावप्रपंचपरिहीणे सकलदुराचारनिवृत्तिकारणे
परमतपश्चरणे च परमगुरुप्रसादासादितनिरंजननिजकारणपरमात्मा सदा सन्निहित इति केवलिनां शासने तस्य परद्रव्यपराङ्मुखस्य परमवीतरागसम्यग्द्रष्टेर्वीतरागचारित्रभाजःसामायिकव्रतं स्थायि भवतीति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे
तिष्ठत्युच्चैः परमयमिनः शुद्धद्रष्टेर्मनश्चेत् ।
तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे
साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे ॥२१२॥



यहाँ (इस गाथा में) भी आत्मा ही उपादेय है ऐसा कहा है ।

बाह्य-प्रपंच से पराङ्मुख और समस्त इन्द्रिय-व्यापार को जीते हुए ऐसे जिस भावीजिन को पाप-क्रिया की निवृत्तिरूप बाह्य-संयम में, काय-वचन-मनोगुप्तिरूप, समस्त इन्द्रिय-व्यापार रहित अभ्यंतर-संयम में, मात्र परिमित (मर्यादित) काल के आचरण-स्वरूप नियम में, निज-स्वरूप में अविचल स्थितिरूप, चिन्मय - परमब्रह्म में नियत (निश्चल रहे हुए) ऐसे निश्चय अन्तर्गत-आचार में (निश्चय-अभ्यंतर नियम में), व्यवहार से *प्रपंचित (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्याचार रूप) पंचाचार में (व्यवहार-तपश्चरण में), तथा पंचमगति के हेतुभूत, किंचित् भी परिग्रह-प्रपंच से सर्वथा-रहित, सकल-दुराचार की निवृत्ति के कारणभूत ऐसे परम तपश्चरण में (इन सब में) परम गुरु के प्रसाद से प्राप्त किया हुआ निरंजन निज कारण-परमात्मा सदा समीप है (जिस मुनि को संयम में, नियम में और तप में निज कारण-परमात्मा सदा निकट है ), उस पर-द्रव्य पराङ्मुख परम-वीतराग - सम्यक्दृष्टि वीतराग -चारित्रवंत को सामायिक-व्रत स्थायी है ऐसा केवलियों के शासन में कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
शुद्ध सम्यग्दृष्टिजन जाने कि संयमवंत के ।
तप-नियम-संयम-चरित में यदि आतमा ही मुख्य है ॥
तो सहज समताभाव निश्चित जानिये हे भव्यजन ।
भावितीर्थंकर श्रमण को भवभयों से मुक्त जो ॥२१२॥
यदि शुद्ध-दृष्टिवन्त (शुद्ध-सम्यग्दृष्टि) जीव ऐसा समझता है कि परम मुनि को तप में, नियम में, संयम में और सत्चारित्र में सदा आत्मा ऊर्ध्व रहता है (प्रत्येक कार्य में निरन्तर शुद्धात्म-द्रव्य ही मुख्य रहता है ) तो (ऐसा सिद्ध हुआ कि) राग के नाश के कारण अभिराम ऐसे उस भव-भय-हर भावि तीर्थाधिनाथ को यह साक्षात् सहज-समता अवश्य है ।

*प्रपंचित = दर्शाये गये; विस्तार को प्राप्त ।
अभिराम = मनोहर; सुन्दर । (भव-भय के हरनेवाले ऐसे इस भावि तीर्थङ्कर ने राग का नाश किया होने से वह मनोहर है ।)