+ रत्नत्रय का स्वरूप -
सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो ।
तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥134॥
सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः ।
तस्य तु निर्वृतिभक्ति र्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ॥१३४॥
सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रकी श्रावक श्रमण भक्ति करे ।
उसको कहें निर्वाण-भक्ति परम जिनवर देव रे ॥१३४॥
अन्वयार्थ : [यः श्रावकः श्रमणः] जो श्रावक अथवा श्रमण [सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की [भक्तिं] भक्ति [करोति] करता है, [तस्य तु] उसे [निर्वृत्तिभक्तिः भवति] निर्वृत्ति-भक्ति (निर्वाण की भक्ति) है [इति] ऐसा [जिनैः प्रज्ञप्तम्] जिनों ने कहा है ।
Meaning :  A saint or a layman, who entertains devotion for right belief, right knowledge and right conduct (is said) to have devotion leading to liberation. This has been said by the conquerors.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथ संप्रति हि भक्त्यधिकार उच्यते ।
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् ।
चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणतीव्रमिथ्यात्वकर्मप्रकृतिप्रतिपक्षनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक् -श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्ति राराधनेत्यर्थः । एकादशपदेषु श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्त्रयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति । अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवृत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति । तेषां परम-श्रावकाणां परमतपोधनानां च जिनोत्तमैः प्रज्ञप्ता निर्वृतिभक्ति रपुनर्भवपुरंध्रिकासेवा भवतीति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे
भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम् ।
कामक्रोधाद्यखिलदुरघव्रातनिर्मुक्त चेताः
भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावकः संयमी वा ॥२२०॥



अब भक्ति अधिकार कहा जाता है ।

यह, रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है ।

चतुर्गति संसार में परिभ्रमण के कारणभूत तीव्र मिथ्यात्वकर्म की प्रकृति से प्रतिपक्ष (विरुद्ध) निज परमात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान - अवबोध - आचरण स्वरूप शुद्धरत्नत्रय -परिणामों का जो भजन वह भक्ति है; आराधना ऐसा उसका अर्थ है । एकादशपदी (ग्यारह प्रतिमा) श्रावकों में जघन्य छह हैं, मध्यम तीन हैं तथा उत्तम दो हैं । यह सब शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं । तथा भवभय भीरु, परम नैष्कर्म्य वृत्ति वाले (परम निष्कर्म परिणति वाले) परम तपोधन भी (शुद्ध) रत्नत्रय की भक्ति करते हैं । उन परम श्रावकों तथा परम तपोधनों को जिनवरों की कही हुई निर्वाण-भक्ति / अपुनर्भवरूपी स्त्री की सेवा वर्तती है ।

(कलश--हरिगीत)
संसारभयहर ज्ञानदर्शनचरण की जो संयमी ।
श्रावक करें भव अंतकारक अतुल भक्ती निरंतर ॥
वे काम क्रोधादिक अखिल अघ मुक्त मानस भक्तगण ।
ही लोक में जिनभक्त सहृदय और सच्चे भक्त हैं ॥२२०॥
जो जीव भवभय के हरनेवाले इस सम्यक्त्व की, शुद्ध ज्ञान की और चारित्र की भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह कामक्रोधादि समस्त दुष्ट पाप-समूह से मुक्त चित्तवाला जीव, श्रावक हो अथवा संयमी हो, निरन्तर भक्त है, भक्त है ।