
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथ संप्रति हि भक्त्यधिकार उच्यते । रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् । चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणतीव्रमिथ्यात्वकर्मप्रकृतिप्रतिपक्षनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक् -श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्ति राराधनेत्यर्थः । एकादशपदेषु श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्त्रयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति । अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवृत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयभक्तिं कुर्वन्ति । तेषां परम-श्रावकाणां परमतपोधनानां च जिनोत्तमैः प्रज्ञप्ता निर्वृतिभक्ति रपुनर्भवपुरंध्रिकासेवा भवतीति । (कलश--मंदाक्रांता) सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम् । कामक्रोधाद्यखिलदुरघव्रातनिर्मुक्त चेताः भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावकः संयमी वा ॥२२०॥ अब भक्ति अधिकार कहा जाता है । यह, रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है । चतुर्गति संसार में परिभ्रमण के कारणभूत तीव्र मिथ्यात्वकर्म की प्रकृति से प्रतिपक्ष (विरुद्ध) निज परमात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान - अवबोध - आचरण स्वरूप शुद्धरत्नत्रय -परिणामों का जो भजन वह भक्ति है; आराधना ऐसा उसका अर्थ है । एकादशपदी (ग्यारह प्रतिमा) श्रावकों में जघन्य छह हैं, मध्यम तीन हैं तथा उत्तम दो हैं । यह सब शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं । तथा भवभय भीरु, परम नैष्कर्म्य वृत्ति वाले (परम निष्कर्म परिणति वाले) परम तपोधन भी (शुद्ध) रत्नत्रय की भक्ति करते हैं । उन परम श्रावकों तथा परम तपोधनों को जिनवरों की कही हुई निर्वाण-भक्ति / अपुनर्भवरूपी स्त्री की सेवा वर्तती है । (कलश--हरिगीत)
जो जीव भवभय के हरनेवाले इस सम्यक्त्व की, शुद्ध ज्ञान की और चारित्र की भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह कामक्रोधादि समस्त दुष्ट पाप-समूह से मुक्त चित्तवाला जीव, श्रावक हो अथवा संयमी हो, निरन्तर भक्त है, भक्त है ।
संसारभयहर ज्ञानदर्शनचरण की जो संयमी । श्रावक करें भव अंतकारक अतुल भक्ती निरंतर ॥ वे काम क्रोधादिक अखिल अघ मुक्त मानस भक्तगण । ही लोक में जिनभक्त सहृदय और सच्चे भक्त हैं ॥२२०॥ |