
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
व्यवहारनयप्रधानसिद्धभक्ति स्वरूपाख्यानमेतत् । ये पुराणपुरुषाः समस्तकर्मक्षयोपायहेतुभूतं कारणपरमात्मानमभेदानुपचाररत्नत्रय-परिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां केवलज्ञानादिशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां परमभक्ति मासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्व्यवहारनयेन निर्वृतिभक्ति र्भवतीति । (कलश--अनुष्टुभ्) उद्धूतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान् । संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान् ॥२२१॥ (कलश--आर्या) व्यवहारनयस्येत्थं निर्वृतिभक्ति र्जिनोत्तमैः प्रोक्ता । निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्ति रित्युक्ता ॥२२२॥ (कलश--आर्या) निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयं । शुद्धोपयोगफ लमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्याः ॥२२३॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः । ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहाकैवल्यसंपद्गुणाः तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान् ॥२२४॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) त्रैलोक्याग्रनिकेतनान् गुणगुरून् ज्ञेयाब्धिपारंगतान् मुक्ति श्रीवनितामुखाम्बुजरवीन् स्वाधीनसौख्यार्णवान् । सिद्धान् सिद्धगुणाष्टकान् भवहरान् नष्टाष्टकर्मोत्करान् नित्यान् तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपावकान् ॥२२५॥ (कलश--वसंततिलका) ये मर्त्यदैवनिकुरम्बपरोक्षभक्ति - योग्याः सदा शिवमयाः प्रवराः प्रसिद्धाः । सिद्धाः सुसिद्धिरमणीरमणीयवक्त्र- पंकेरुहोरुमकरंदमधुव्रताः स्युः ॥२२६॥ यह, व्यवहारनय प्रधान सिद्ध-भक्ति के स्वरूप का कथन है । जो पुराण पुरुष समस्त कर्म-क्षय के उपाय के हेतुभूत कारण परमात्मा की अभेद-अनुपचार रत्नत्रय परिणति से सम्यक् रूप से आराधना करके सिद्ध हुए उनके केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के भेद को जानकर निर्वाण की परम्परा हेतुभूत ऐसी परम-भक्ति जो आसन्नभव्य जीव करता है, उस मुमुक्षु को व्यवहारनय से निर्वाण-भक्ति है । (कलश--दोहा)
जिन्होंने कर्म-समूह को खिरा दिया है, जो सिद्धि-वधू के (मुक्ति रूपी स्त्री के) पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्य को संप्राप्त किया है तथा जो कल्याण के धाम हैं, उन सिद्धों को मैं नित्य वंदन करता हूँ ।सिद्धवधूधव सिद्धगण नाशक कर्मसमूह । मुक्तिनिलयवासी गुणी वंदन करूँ सदीव ॥२२१॥ (कलश--दोहा)
इसप्रकार (सिद्ध भगवन्तों की भक्ति को) व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति जिनवरों ने कहा है; निश्चय-निर्वाणभक्ति रत्नत्रय-भक्ति को कहा है ।सिद्धभक्ति व्यवहार है जिनमत के अनुसार । नियतभक्ति है रतनत्रय भविजन तारणहार ॥२२२॥ (कलश--दोहा)
आचार्यों ने सिद्धत्व को निःशेष (समस्त) दोष से दूर,केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का धाम और शुद्धोपयोग का फल कहा है ।सब दोषों से दूर जो शुद्धगुणों का धाम । आत्मध्यानफल सिद्धपद सूरि कहें सुखधाम ॥२२३॥ (कलश--हरिगीत)
जो लोकाग्रमें वास करते हैं, जो भवभव के क्लेशरूपी समुद्र के पार को प्राप्त हुए हैं, जो निर्वाण वधू के पुष्ट स्तन के आलिंगन से उत्पन्न सौख्य की खान हैं तथा जो शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न कैवल्य सम्पदा के (मोक्ष-सम्पदा के) महा गुणोंवाले हैं, उन पापाटवी-पावक (पापरूपी वन को जलाने में अग्नि समान) सिद्धों को मैं प्रतिदिन नमन करता हूँ ।शिववधूसुखखान केवलसंपदा सम्पन्न जो । पापाटवी पावक गुणों की खान हैं जो सिद्धगण ॥ भवक्लेश सागर पार अर लोकाग्रवासी सभी को । वंदन करूँ मैं नित्य पाऊँ परमपावन आचरण ॥२२४॥ (कलश--हरिगीत)
जो तीन लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं, जो गुण में बड़े हैं, जो ज्ञेयरूपी महासागर के पार को प्राप्त हुए हैं, जो मुक्ति-लक्ष्मी रूपी स्त्री के मुख-कमल के सूर्य हैं, जो स्वाधीन सुख के सागर हैं, जिन्होंने अष्ट गुणों को सिद्ध (प्राप्त) किया है, जो भव का नाश करनेवाले हैं तथा जिन्होंने आठ कर्मों के समूह को नष्ट किया है, उन पापाटवीपावक (पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान) नित्य (अविनाशी) सिद्ध भगवन्तों की मैं निरन्तर शरण ग्रहण करता हूँ ।ज्ञेयोदधि के पार को जो प्राप्त हैं वे सुख उदधि । शिववधूमुखकमलरवि स्वाधीनसुख के जलनिधि ॥ आठ कर्मों के विनाशक आठगुणमय गुणगुरु । लोकाग्रवासी सिद्धगण की शरण में मैं नित रहूँ ॥२२५॥ (कलश--हरिगीत)
जो मनुष्यों के तथा देवों के समूह की परोक्ष भक्ति के योग्य हैं,जो सदा शिवमय हैं, जो श्रेष्ठ हैं तथा जो प्रसिद्ध हैं, वे सिद्ध भगवन्त सुसिद्धिरूपी रमणी के रमणीय मुख-कमल के महा *मकरन्द के भ्रमर हैं (अनुपम मुक्ति-सुख का निरन्तर अनुभव करते हैं) ।सुसिद्धिरूपी रम्यरमणी के मधुर रमणीय मुख । कमल के मकरंद के अलि वे सभी जो सिद्धगण ॥ नरसुरगणों की भक्ति के जो योग्य शिवमय श्रेष्ठ हैं । मैं उन सभी को परमभक्ति भाव से करता नमन ॥२२६॥ *मकरन्द = फूल का पराग, फूल का रस, फूल का केसर । |