
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चययोगभक्ति स्वरूपाख्यानमेतत् । निरवशेषेणान्तर्मुखाकारपरमसमाधिना निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां परिहारे सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीवः निजेनाखंडाद्वैतपरमानंदस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानंयुनक्ति , स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्ति युक्त : । इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथंयोगभक्तिर्भवति । तथा चोक्तम् - (कलश--अनुष्टुभ्) आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः । तस्य ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ॥ तथा हि - (कलश--अनुष्टुभ्) आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् । स योगभक्ति युक्त : स्यान्निश्चयेन मुनीश्वरः ॥२२८॥ यह, निश्चय-योग-भक्ति के स्वरूप का कथन है । निरवशेषरूप से अन्तर्मुखाकार (सर्वथा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसी) परमसमाधि द्वारा समस्त मोह-राग-द्वेषादि परभावों का परिहार होने पर, जो साधु (आसन्नभव्य जीव) निज अखण्ड अद्वैत परमानन्द स्वरूप के साथ निज कारण-परमात्मा को जोड़ता है, वह परम तपोधन ही शुद्धनिश्चय - उपयोग भक्ति वाला है; दूसरे को, बाह्य प्रपंच में सुखी हो उसे, योग-भक्ति किसप्रकार हो सकती है ? इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--दोहा)
आत्म प्रयत्न सापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति उसका ब्रह्म में संयोग होना (आत्मप्रयत्न की अपेक्षावाली विशेष प्रकार की चित्त-परिणति का आत्मा में लगना) उसे योग कहा जाता है ।निज आतम के यत्न से मनगति का संयोग । निज आतम में होय जो वही कहावे योग ॥५१॥ और (कलश--दोहा)
जो यह आत्मा आत्मा को आत्मा के साथ निरन्तर जोड़ता है, वह मुनीश्वर निश्चय से योग-भक्तिवाला है ।
निज आतम में आतमा को जोड़े जो योगि । योग भक्ति वाला वही मुनिवर निश्चय योगि ॥२२८॥ |