
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रापि पूर्वसूत्रवन्निश्चययोगभक्तिस्वरूपमुक्तम् । अत्यपूर्वनिरुपरागरत्नत्रयात्मकनिजचिद्विलासलक्षणनिर्विकल्पपरमसमाधिना निखिल-मोहरागद्वेषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्तर्मुखनिजकारणसमय- सारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीवः सदा युनक्त्येव, तस्य खलु निश्चययोगभक्ति र्नान्येषाम् इति । (कलश--अनुष्टुभ्) भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्ति रनुत्तमा । तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्ति र्भवति योगिनाम् ॥२२९॥ यहाँ भी पूर्व-सूत्र की भाँति निश्चय - योग भक्ति का स्वरूप कहा है । अति – अपूर्व १निरुपराग रत्नत्रयात्मक, २निजचिद्विलास लक्षण निर्विकल्प परम-समाधि द्वारा समस्त मोह-राग-द्वेषादि विविध विकल्पों का अभाव होने पर, परम समरसी भाव के साथ ३निरवशेषरूप से अंतर्मुख निज कारण-समयसार-स्वरूप को जो अति-आसन्न-भव्य जीव सदा जोड़ता ही है, उसे वास्तव में निश्चय-योगभक्ति है; दूसरों को नहीं । (कलश--दोहा)
भेद का अभाव होने पर यह ४अनुत्तम योगभक्ति होती है; उसके द्वारा योगियों को आत्मलब्धिरूप ऐसी वह (प्रसिद्ध) मुक्ति होती है ।आत्मलब्धि रूपा मुकति योगभक्ति से होय । योगभक्ति सर्वोत्तमा भेदाभावे होय ॥२२९॥ १ - निरुपराग = निर्विकार; शुद्ध । [परम समाधि अति-अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप है । ] २ – परम समाधि का लक्षण निज चैतन्य का विलास है । ३ – निरवशेष = परिपूर्ण । [कारण-समयसार-स्वरूप परिपूर्ण अन्तर्मुख है । ] ४ – अनुत्तम = जिससे दूसरा कुछ उत्तम नहीं है ऐसी; सर्वश्रेष्ठ । |