
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
भक्त्यधिकारोपसंहारोपन्यासोयम् । अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनाभेयादिश्रीवर्धमानचरमाः चतुर्विंशति-तीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवर्तिकीर्तयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे एवमुक्त प्रकारस्वात्मसंबन्धिनीं शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तन-भरगाढोपगूढनिर्भरानंदपरमसुधारसपूरपरितृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः स्फुटितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति । (शार्दूलविक्रीडित) नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान् श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान् । पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगनासंहतेः शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे ॥२३१॥ (आर्या) वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्त मार्गेण । कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ॥२३२॥ (आर्या) अपुनर्भवसुखसिद्धयै कुर्वेहं शुद्धयोगवरभक्तिम् । संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ॥२३३॥ (शार्दूलविक्रीडित) रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः । धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरोः सन्निधौ ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि ॥२३४॥ (अनुष्टुभ्) निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम् । सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ॥२३५॥ (अनुष्टुभ्) अत्यपूर्वनिजात्मोत्थभावनाजातशर्मणे । यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ॥२३६॥ (वसंततिलका) अद्वन्द्वनिष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम् । किं तैश्च मे फ लमिहान्यपदार्थसार्थैः मुक्ति स्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य ॥२३७॥ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः ॥ यह, भक्ति अधिकार के उपसंहार का कथन है । इस भारतवर्ष में पहले श्री नाभिपुत्र से लेकर श्री वर्धमान तक के चौबीस तीर्थंकर - परमदेव - सर्वज्ञवीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाले महादेवाधिदेव परमेश्वर -- सब, यथोक्त प्रकार से निज-आत्मा के साथ सम्बन्ध रखनेवाली शुद्ध-निश्चय योग की उत्तम भक्ति करके, परम निर्वाणवधू के अति पुष्ट स्तन के गाढ़ आलिंगन से सर्व आत्म-प्रदेश में अत्यन्त-आनन्दरूपी परम सुधारस के पूर से परितृप्त हुए; इसलिये १स्फुटित भव्यत्वगुण वाले हे महाजनों ! तुम निज-आत्मा को परम वीतराग सुख की देनेवाली ऐसी वह योगभक्ति करो । (कलश--वीरछन्द)
गुण में जो बड़े हैं, जो त्रिलोक के पुण्य की राशि हैं (जिनमें मानों कि तीन लोक के पुण्य एकत्रित हुए हैं ), देवेन्द्रों के मुकुट की किनारी पर प्रकाशमान माणिक पंक्ति से जो पूजित हैं (जिनके चरणारविन्द में देवेन्द्रों के मुकुट झुकते हैं), (जिनके आगे) शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणियों के साथ में शक्रेन्द्र द्वारा किये जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्द से जो शोभित हैं, और २श्री तथा कीर्ति के जो स्वामी हैं, उन श्री नाभिपुत्रादि जिनेश्वरों का मैं स्तवन करता हूँ ।शुद्धपरिणति गुणगुरुओं की अद्भुत अनुपम अति निर्मल । तीन लोक में फैल रही है जिनकी अनुपम कीर्ति धवल ॥ इन्द्रमुकुटमणियों से पूजित जिनके पावन चरणाम्बुज । उन ऋषभादि परम गुरुओं को वंदन बारंबार सहज ॥२३१॥ (कलश--वीरछन्द)
श्री वृषभ से लेकर श्री वीर तक के जिनपति भी यथोक्त मार्ग से (पूर्वोक्त प्रकार से) योगभक्ति करके निर्वाणवधू के सुख को प्राप्त हुए हैं ।ऋषभदेव से महावीर तक इसी मार्ग से मुक्त हुए । इसी विधि से योगभक्ति कर शिवरमणी सुख प्राप्त किये ॥२३२॥ (कलश--दोहा)
अपुनर्भव सुख की (मुक्ति-सुख की) सिद्धि के हेतु मैं शुद्धयोग की उत्तम भक्ति करता हूँ; संसार की घोर भीति से सर्व जीव नित्य वह उत्तम भक्ति करो ।मैं भी शिवसुख के लिए योगभक्ति अपनाऊँ । भव भय से हे भव्यजन इसको ही अपनाओ ॥२३३॥ (कलश--वीरछन्द)
गुरु के सान्निध्य में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके, ज्ञानद्वारा जिसने समस्त मोह की महिमा नष्ट की है ऐसा मैं, अब रागद्वेष की परम्परारूप से परिणत चित्त को छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित (एकाग्र, शांत) किये हुए मन से आनन्दात्मक तत्त्व में स्थित रहता हुआ, परब्रह्म में (परमात्मा में) लीन होता हूँ ।गुरुदेव की सत्संगति से सुखकर निर्मल धर्म अजोड़ । पाकर मैं निर्मोह हुआ हूँ राग-द्वेष परिणति को छोड़ ॥ शुद्धध्यान द्वारा मैं निज को ज्ञानानन्द तत्त्व में जोड़ । परमब्रह्म निज परमातम में लीन हो रहा हूँ बेजोड़ ॥२३४॥ (दोहा)
इन्द्रियलोलुपता जिनको निवृत्त हुई है और तत्त्वलोलुप (तत्त्वप्राप्ति के लिये अति उत्सुक) जिनका चित्त है, उन्हें सुन्दर - आनन्द झरता उत्तम तत्त्व प्रगट होता है ।इन्द्रिय लोलुप जो नहीं तत्त्वलोलुपी चित्त । उनको परमानन्दमय प्रगटे उत्तम तत्त्व ॥२३५॥ (दोहा)
अति अपूर्व निजात्मजनित भावना से उत्पन्न होनेवाले सुख के लिये जो यति यत्न करते हैं, वे वास्तव में जीवन्मुक्त होते हैं, दूसरे नहीं ।अति अपूर्व आतमजनित सुख का करें प्रयत्न । वे यति जीवन्मुक्त हैं अन्य न पावे सत्य ॥२३६॥ (हरिगीत)
जो परमात्मतत्त्व (रागद्वेषादि) द्वंद्व में स्थित नहीं है और अनघ (निर्दोष, मल रहित) है, उस केवल एककी मैं पुनः पुनः सम्भावना (सम्यक् भावना) करता हूँ । मुक्ति की स्पृहावाले तथा भवसुख के प्रति निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोक में उन अन्य पदार्थ-समूहों से क्या फल है ?अद्वन्द्व में है निष्ट एवं अनघ जो दिव्यातमा । मैं एक उसकी भावना संभावना करता सदा ॥ मैं मुक्ति का चाहक तथा हूँ निष्पृही भवसुखों से । है क्या प्रयोजन अब मुझे इन परपदार्थ समूह से ॥२३७॥ इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) परम-भक्ति अधिकार नाम का दसवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ । १ स्फुटित = प्रकटित; प्रगट हुए; प्रगट । २ श्री = शोभा; सौन्दर्य; भव्यता । |