
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयाधिकार उच्यते । अत्रानवरतस्ववशस्य निश्चयावश्यककर्म भवतीत्युक्तम् । यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवतिकिन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः । तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ्मुखस्य स्वात्माश्रय-निश्चयधर्मध्यानप्रधानपरमावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वरा वदन्ति । किं च यस्त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एवसाक्षान्मोक्षकारणत्वान्निर्वृतिमार्ग इति निरुक्ति र्व्युत्पत्तिरिति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः - (कलश--मंदाक्रांता) आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया निःप्रकम्पप्रकाशां स्फूर्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूर्तौ धर्मः साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम् । सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निर्वृतेरेकमार्गः तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम् ॥२३८॥ अब व्यवहार छह आवश्यकों से प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय का (शुद्धनिश्चय-आवश्यक का) अधिकार कहा जाता है । यहाँ (इस गाथा में), निरन्तर स्ववश को निश्चय - आवश्यक - कर्म है, ऐसा कहा है । विधि अनुसार परमजिनमार्ग के आचरण में कुशल ऐसा जो जीव सदैव अंतर्मुखता के कारण अन्यवश नहीं है परन्तु साक्षात् स्ववश है १ऐसा अर्थ है, उस व्यावहारिक क्रियाप्रपंच से पराङ्मुख जीव को २स्वात्माश्रित - निश्चय धर्मध्यान प्रधान परम आवश्यक कर्म है ऐसा निरन्तर परम तपश्चरण में लीन परम जिनयोगीश्वर कहते हैं । और, सकल कर्म के विनाश का हेतु ऐसा जो ३त्रिगुप्तिगुप्त - परम समाधि लक्षण परम योग वही साक्षात् मोक्ष का कारण होने से निर्वाण का मार्ग है । ऐसी निरुक्ति (व्युत्पत्ति) है । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका नामक टीका में पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि : (कलश--मनहरण)
इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ (स्वयं धर्मरूप से परिणमित होता हुआ) नित्य आनन्द के फैलाव से सरस (जो शाश्वत आनन्द के फैलाव से रस-युक्त हैं ) ऐसे ज्ञान-तत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलपने के कारण, देदीप्यमान ज्योतिवाले और सहजरूप से विलसित (स्वभाव से ही प्रकाशित) रत्नदीपक की निष्कंप - प्रकाशवाली शोभा को प्राप्त होता है (रत्नदीपक की भाँति स्वभाव से ही निष्कंपरूप से अत्यन्त प्रकाशित होता रहता है -- जानता रहता है ) ।विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुं ओर के, चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये । अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये ॥ नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये । नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ॥५२॥ और (कलश--रोला)
स्ववशता से उत्पन्न आवश्यक - कर्मस्वरूप यह साक्षात् धर्म नियम से (अवश्य) सच्चिदानन्दमूर्ति आत्मा में (सत् - चिद् - आनन्दस्वरूप आत्मा में)अतिशयरूप से होता है । ऐसा यह (आत्मस्थित धर्म), कर्मक्षय करने में कुशल ऐसा निर्वाण का एक मार्ग है । उसी से मैं शीघ्र किसी (अद्भुत) निर्विकल्प सुख को प्राप्त करता हूँ ।जो सत् चित् आनंदमयी निज शुद्धातम में । रत होने से अरे स्ववशताजन्य कर्म जो ॥ वह आवश्यक परम करम ही मुक्तिमार्ग है । उससे ही मैं निर्विकल्प सुख को पाता हूँ॥२३८॥ १ – 'अन्यवश नहीं है' इस कथन का 'साक्षात् स्ववश है' ऐसा अर्थ है । २ – निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चय धर्मध्यान परम आवश्यक कर्म में प्रधान है । ३ – परम योग का लक्षण तीन गुप्ति द्वारा गुप्त (अंतर्मुख) ऐसी परम समाधि है । (परम आवश्यक कर्म ही परम योग है और परम योग वह निर्वाण का मार्ग है ।) |