+ शुद्ध निश्चय धर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य -
जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं ।
सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ॥154॥
यदि शक्यते कर्तुम् अहो प्रतिक्रमणादिकं करोषि ध्यानमयम् ।
शक्ति विहीनो यावद्यदि श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ॥१५४॥
जो कर सको तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदिक कीजिये ।
यदि शक्ति हो नहिं तो अरे श्रद्धान निश्चय कीजिये ॥१५४॥
अन्वयार्थ : यदि [कर्तुम् शक्यते] किया जा सके तो [अहो] अहो ! [ध्यानमयम्] ध्यानमय [प्रतिक्रमणादिकं] प्रतिक्रमणादि [करोषि] कर; [यदि] यदि [शक्तिविहीनः] तू शक्तिविहीन हो तो [यावत्] तबतक [श्रद्धानं च एव] श्रद्धान ही [कर्तव्यम्] कर्तव्य है ।
Meaning : If you can (if you have strength), have recourse to repentance (pratikramana), etc., in form of meditation (dhyana); if you cannot (if you lack strength), repose faith (in such conduct).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र शुद्धनिश्चयधर्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणादिकमेव कर्तव्यमित्युक्तम् ।
मुक्ति सुंदरीप्रथमदर्शनप्राभृतात्मकनिश्चयप्रतिक्रमणप्रायश्चित्तप्रत्याख्यानप्रमुखशुद्धनिश्चय-क्रियाश्चैव कर्तव्याः संहननशक्ति प्रादुर्भावे सति हंहो मुनिशार्दूल परमागममकरंदनिष्यन्दि-मुखपद्मप्रभ सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ्मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पञ्चेन्द्रिय-प्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह । शक्ति हीनो यदि दग्धकालेऽकाले केवलं त्वया निजपरमात्म-तत्त्वश्रद्धानमेव कर्तव्यमिति ।
(कलश--शिखरिणी)
असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले
न मुक्ति र्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति ।
अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ॥२६४॥



यहाँ, शुद्ध निश्चय धर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य हैं, ऐसा कहा है ।

सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि, पर-द्रव्य से पराङ्मुख और स्व-द्रव्य में निष्णात बुद्धिवाले, पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र परिग्रह के धारी, परमागमरूपी मकरन्द झरते मुख-कमल से शोभायमान हे मुनिशार्दूल ! (परमागमरूपी मकरन्द झरते मुखवाले हे पद्मप्रभ मुनिशार्दूल !) संहनन और शक्ति का प्रादुर्भाव हो तो मुक्ति-सुन्दरी के प्रथम दर्शन की भेंटस्वरूप निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय-प्रायश्चित्त, निश्चय-प्रत्याख्यान आदि शुद्ध-निश्चय क्रियाएँ ही कर्तव्य है । यदि इस दग्धकालरूप (हीनकालरूप) अकाल में तू शक्तिहीन हो तो तुझे केवल निज परमात्म-तत्त्व का श्रद्धान ही कर्तव्य है ।

(कलश--हरिगीत)
पापमय कलिकाल में जिननाथ के भी मार्ग में ।
मुक्ति होती है नहीं निजध्यान संभव न लगे ॥
तो साधकों को सतत आतमज्ञान करना चाहिए ।
निज त्रिकाली आत्म का श्रद्धान करना चाहिए ॥२६४॥
असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है । इसलिये इस काल में अध्यात्म-ध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिये निर्मल बुद्धिवाले भवभय का नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्म श्रद्धा को अंगीकृत करते हैं ।

- मकरन्द = पुष्प-रस, पुष्प-पराग ।
- प्रादुर्भाव = उत्पन्न होना वह; प्राकटय; उत्पत्ति ।