+ समस्त वचन सम्बन्धी व्यापार का खण्डन -
वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च ।
आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ॥153॥
वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च ।
आलोचनं वचनमयं तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम् ॥१५३॥
रे ! वचनमय प्रतिक्रमण, वाचिक-नियम, प्रत्याख्यान ये ।
आलोचना वाचिक, सभीको जान तू स्वाध्याय रे ॥१५३॥
अन्वयार्थ : [वचनमयं प्रतिक्रमणं] वचनमय प्रतिक्रमण, [वचनमयं प्रत्याख्यानं] वचनमय प्रत्याख्यान, [नियमः] (वचनमय) नियम [च] और [वचनमयम् आलोचनं] वचनमय आलोचना -- [तत् सर्वं] यह सब [स्वाध्यायम्] (प्रशस्त अध्यवसायरूप) स्वाध्याय [जानीहि] जान ।
Meaning : Doing repentance by mere words, practising renunciation and observing vows, only by recitation and making confession by speech alone, should all be known as included in the study of scriptures (Svadhyaya).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
सकलवाग्विषयव्यापारनिरासोऽयम् ।
पाक्षिकादिप्रतिक्रमणक्रियाकारणं निर्यापकाचार्यमुखोद्गतं समस्तपापक्षयहेतुभूतंद्रव्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान्न ग्राह्यं भवति, प्रत्याख्यान-नियमालोचनाश्च । पौद्गलिकवचनमयत्वात्तत्सर्वं स्वाध्यायमिति रे शिष्य त्वं जानीहि इति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां
निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः ।
नित्यानंदाद्यतुलमहिमाधारके स्वस्वरूपे
स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श ॥२६३॥

तथा चोक्तम् --
परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खणा य धम्मकहा ।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होदि सज्झाउ ॥



यह, समस्त वचन सम्बन्धी व्यापार का निरास (निराकरण, खण्डन) है ।

पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्रिया का कारण ऐसा जो निर्यापक आचार्य के मुख से निकला हुआ, समस्त पापक्षय के हेतुभूत, सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत वह वचन वर्गणायोग्य पुद्गल द्रव्यात्मक होने से ग्राह्य नहीं है । प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना भी (पुद्गल द्रव्यात्मक होने से) ग्रहण करने योग्य नहीं हैं । वह सब पौद्गलिक वचनमय होने से स्वाध्याय है ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।

(कलश--रोला)
मुक्ति सुन्दरी के दोनों अति पुष्ट स्तनों ।
के आलिंगनजन्य सुखों का अभिलाषी हो ॥
अरे त्यागकर जिनवाणी को अपने में ही ।
थित रहकर वह भव्यजीव जग तृणसम निरखे ॥२६३॥
ऐसा होने से, मुक्तिरूपी स्त्री के पुष्ट स्तनयुगल के आलिंगन सौख्य की स्पृहावाला भव्य जीव समस्त वचनरचना को सर्वदा छोड़कर, नित्यानन्द आदि अतुल महिमा के धारक निज-स्वरूप में स्थित रहकर, अकेला (निरालम्बरूप से) सर्व जगतजाल को (समस्त लोकसमूह को) तृण समान (तुच्छ) देखता है ।

इसीप्रकार (श्री मूलाचार में पंचाचार अधिकार में २१९वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
परीवर्तन वाँचना अर पृच्छना अनुप्रेक्षा ।
स्तुति मंगल पूर्वक यह पंचविध स्वाध्याय है ॥५८॥
परिवर्तन (पढ़े हुए को दुहरा लेना वह), वाचना (शास्त्रव्याख्यान), पृच्छना (शास्त्रश्रवण), अनुप्रेक्षा (अनित्यत्वादि बारह अनुप्रेक्षा) और धर्मकथा (६३ शलाका पुरुषों के चरित्र) -- ऐसे पाँच प्रकार का, *स्तुति तथा मंगल सहित, स्वाध्याय है ।

*स्तुति = देव और मुनि को वन्दन । (धर्मकथा, स्तुति और मंगल मिलकर स्वाध्याय का पाँचवाँ प्रकार माना जाता है ।)