+ परमावश्यक अधिकार का उपसंहार -
सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण ।
अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा ॥158॥
सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा ।
अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः ॥१५८॥
यों सर्व पौराणिक पुरुष आवश्यकों की विधि धरी ।
पाकर अरे अप्रमत्त स्थान हुए नियत प्रभु केवली ॥१५८॥
अन्वयार्थ : [सर्वे] सर्व [पुराणपुरुषाः] पुराण पुरुष [एवम्] इसप्रकार [आवश्यकं च] आवश्यक [कृत्वा] करके, [अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं] अप्रमत्तादि स्थान को [प्रतिपद्य च] प्राप्त करके [केवलिनः जाताः] केवली हुए ।
Meaning : All ancient great men, by having thus practised (Avashyaka-Independent Action) and passing through the spiritual stages of " Perfect vow" (Apramatta Virata), etc., have become Omniscients

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
परमावश्यकाधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम् ।
स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयपरमा-वश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थकरपरमदेवादयः स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात् जाताश्चेति ।
(कलश--शार्दूलविक्रीडित)
स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः ।
तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्ति स्पृहो निस्पृहः
स स्यात् सर्वजनार्चितांघ्रिकमलः पापाटवीपावकः ॥२७०॥
(कलश--मंदाक्रांता)
मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं हेयरूपं
नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम् ।
चेतः शीघ्रं प्रविश परमात्मानमव्यग्ररूपं
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय ॥२७१॥

इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयपरमावश्यकाधिकार एकादशमः श्रुतस्कन्धः ॥


यह, परमावश्यक अधिकार के उपसंहार का कथन है ।

स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान स्वरूप ऐसा जो बाह्य-आवश्यकादि क्रिया से प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय - परमावश्यक - साक्षात् अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी) स्त्री के अनंग (अशरीरी) सुख का कारण - उसे करके, सर्व पुराण पुरुष, कि जिनमें से तीर्थंकर, परमदेव आदि स्वयंबुद्ध हुए और कुछ बोधितबुद्ध हुए वे, अप्रमत्त से लेकर सयोगीभट्टारक तक के गुणस्थानों की पंक्ति में आरूढ़ होते हुए, परमावश्यकरूप आत्माराधना के प्रसाद से केवली - सकल-प्रत्यक्ष ज्ञानधारी हुए ।

(कलश--वीर छन्द)
अरे पुराण पुरुष योगीजन निज आतम आराधन से ।
सभी करमरूपी राक्षस के पूरी तरह विराधन से ॥
विष्णु-जिष्णु हुए उन्हीं को जो मुमुक्षु पूरे मन से ।
नित्य नमन करते वे मुनिजन अघ अटवी को पावक हैं ॥२७०॥
पहले जो सर्व पुराण पुरुष - योगी - निज-आत्मा कीआराधना से समस्त कर्मरूपी राक्षसों के समूह का नाश करके *विष्णु और जयवन्त हुए (अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाले जिन हुए), उन्हें जो मुक्ति की स्पृहावाला निःस्पृह जीव अनन्य मन से नित्य प्रणाम करता है, वह जीव पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान है और उसके चरण-कमल को सर्व जन पूजते हैं ।

(कलश--वीर छन्द)
कनक-कामिनी गोचर एवं हेयरूप यह मोह छली ।
इसे छोड़कर निर्मल सुख के लिए परम पावन गुरु से ॥
धर्म प्राप्त करके हे आत्मन् निरुपम निर्मल गुणधारी ।
दिव्यज्ञान वाले आतम में तू प्रवेश कर सत्वर ही ॥२७१॥
हेयरूप ऐसा जो कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह उसे छोड़कर, हे चित्त ! निर्मल सुख के हेतु परम गुरु द्वारा धर्म को प्राप्त करके तू अव्यग्ररूप (शांतस्वरूपी) परमात्मा में, कि जो (परमात्मा) नित्य आनन्दवाला है, निरुपम गुणों से अलंकृत है तथा दिव्य ज्ञानवाला है उसमें, शीघ्र प्रवेश कर ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) निश्चय-परमावश्यक अधिकार नामका ग्यारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

*विष्णु = व्यापक । (केवली भगवानका ज्ञान सर्वको जानता है इसलिये उस अपेक्षासे उन्हें सर्वव्यापककहा जाता है)