
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथ सकलकर्मप्रलयहेतुभूतशुद्धोपयोगाधिकार उच्यते । अत्र ज्ञानिनः स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्तम् । आत्मगुणघातकघातिकर्मप्रध्वंसनेनासादितसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां व्यवहार-नयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसचराचरद्रव्यगुणपर्यायान् एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् ।शुद्धनिश्चयतः परमेश्वरस्य महादेवाधिदेवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य परद्रव्यग्राहकत्वदर्शकत्व-ज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषादः“ (?) स भगवान् त्रिकाल-निरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्य-परमात्मापि जानाति पश्यति च । किं कृत्वा ? ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वंप्रदीपवत् । घटादिप्रमितेः प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नोऽपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात् स्वं परंच प्रकाशयति; आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योतिःस्वरूपत्वात्स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति । उक्तं च षण्णवतिपाषंडिविजयोपार्जितविशालकीर्तिभिर्महासेनपण्डितदेवैः (कलश--अनुष्टुभ्) यथावद्वस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् । तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ॥ अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव-निरतत्वात्, स्वाश्रितो निश्चयः इति वचनात् । सहजज्ञानं तावत् आत्मनः सकाशात्संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति, अतःकारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपिजानातीति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः- (कलश--मंदाक्रांता) बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत- न्नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोत्यन्तगंभीरधीरं पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ॥ तथा हि - (कलश--स्रग्धरा) आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति । शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति ॥२७२॥ अब समस्त कर्म के प्रलय के हेतुभूत शुद्धोपयोग का अधिकार कहा जाता है । यहाँ, ज्ञानी को स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है । 'पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहार पराश्रित है )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से, व्यवहारनय से वे भगवान परमेश्वर परमभट्टारक आत्मगुणों का घात करनेवाले घातिकर्मों के नाश द्वारा प्राप्त सकल-विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायों को एक समय में जानते हैं और देखते हैं । शुद्धनिश्चय से परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञ वीतराग को, परद्रव्य के ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदि के विविध विकल्पों की सेना की उत्पत्ति मूलध्यान में अभावरूप होने से (?), वे भगवान त्रिकाल - निरुपाधि, निरवधि (अमर्यादित), नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहजदर्शन द्वारा निज कारण परमात्मा को, स्वयं कार्य परमात्मा होने पर भी, जानते हैं और देखते हैं । किसप्रकार ? इस ज्ञान का धर्म तो, दीपक की भाँति, स्व-पर प्रकाशकपना है । घटादि की प्रमिति से प्रकाश - दीपक (कथंचित्) भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाश स्वरूप होने से स्व और पर को प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योति-स्वरूप होने से व्यवहार से त्रिलोक और त्रिकालरूप पर को तथा स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा को (स्वयं को) प्रकाशित करता है । पाखण्डियों पर विजय प्राप्त करने से जिन्होंने विशाल कीर्ति प्राप्त की है ऐसे महासेन पंडित देव ने भी (श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
वस्तु का यथार्थ निर्णय सो सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञान, दीपक की भाँति, स्व के और (पर) पदार्थों के निर्णयात्मक है तथा प्रमिति से (ज्ञप्ति से) कथंचित् भिन्न है ।वस्तु के सत्यार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञान है । स्व-पर अर्थों का प्रकाशक वह प्रदीप समान है ॥ वह निर्णयात्मक ज्ञान प्रमिति से कथंचित् भिन्न है । पर आतमा से ज्ञानगुण से तो अखण्ड अभिन्न है ॥५९॥ अब 'स्वाश्रितो निश्चय: (निश्चय स्वाश्रित है )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से, (ज्ञान को) सतत १निरुपराग निरंजन स्वभाव में लीनता के कारण निश्चयपक्ष से भी स्व-पर प्रकाशकपना है ही । (वह इसप्रकार :) सहजज्ञान आत्मा से संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा से भिन्न नाम तथा भिन्न लक्षण से (तथा भिन्न प्रयोजन से) जाना जाता है तथापि वस्तुवृत्ति से (अखण्ड वस्तु की अपेक्षा से) भिन्न नहीं है; इस कारण से यह (सहजज्ञान) आत्मगत (आत्मा में स्थित) दर्शन, सुख, चारित्र आदि को जानता है और स्वात्मा को, कारण-परमात्मा के स्वरूप को, भी जानता है । (सहजज्ञान स्वात्मा को तो स्वाश्रित निश्चयनय से जानता ही है और इस प्रकार स्वात्मा को जानने पर उसके समस्त गुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं । अब सहजज्ञान ने जो यह जाना उसमें भेद-अपेक्षा से देखें तो सहजज्ञान के लिये ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरिक्त अन्य सब - दर्शन, सुख आदि - पर है; इसलिये इस अपेक्षा से ऐसा सिद्ध हुआ कि निश्चयपक्ष से भी ज्ञान स्व को तथा पर को जानता है । ) इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १९२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
कर्मबन्ध के छेदन से अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्ष का अनुभव करता हुआ, नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकान्त शुद्ध (कर्म का मैल न रहने से जो अत्यन्त शुद्ध हुआ है ऐसा), तथा एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकाररुप परिणमित) निजरस की अतिशयता से जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा (सर्वथाशुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ), अपनी अचल महिमा में लीन हुआ ।बंध-छेद से मुक्त हुआ यह शुद्ध आतमा, निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय । उदित हुआ है अपनी महिमा में हिमामय, अचल अनाकुल अज अखंड यह ज्ञानदिवाकर ॥६०॥ और (कलश--हरिगीत)
व्यवहारनय से यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा निरन्तर विश्व को वास्तव में जानता है और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी के कोमल मुख-कमल पर कामपीड़ा को तथा सौभाग्य चिह्नवाली शोभा को फैलाता है । निश्चयसे तो, जिन्होंने मल और क्लेश को नष्ट किया है ऐसे वे देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूप को अत्यन्त जानते हैं ।सौभाग्यशोभा कामपीड़ा शिवश्री के वदन की । बढ़ावें जो केवली वे जानते सम्पूर्ण जग ॥ व्यवहार से परमार्थ से मलक्लेश विरहित केवली । देवाधिदेव जिनेश केवल स्वात्मा को जानते ॥२७२॥ १यहाँ संस्कृत टीका में अशुद्धि मालूम होती है, इसलिये संस्कृत टीका में तथा उसके अनुवाद में शंका को सूचित करने के लिये प्रश्नवाचक चिह्न दिया है । २निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार । |