
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
एकान्तेनात्मनः परप्रकाशकत्वनिरासोऽयम् । यथैकान्तेन ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं पुरा निराकृतम्, इदानीमात्मा केवलंपरप्रकाशश्चेत् तत्तथैव प्रत्यादिष्टं, भावभाववतोरेकास्तित्वनिर्वृत्तत्वात् । पुरा किल ज्ञानस्यपरप्रकाशकत्वे सति तद्दर्शनस्य भिन्नत्वं ज्ञातम् । अत्रात्मनः परप्रकाशकत्वे सतितेनैव दर्शनं भिन्नमित्यवसेयम् । अपि चात्मा न परद्रव्यगत इति चेत्तद्दर्शनमप्यभिन्नमित्यवसेयम् । ततः खल्वात्मा स्वपरप्रकाशक इति यावत् । कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्मधर्मिणोरेकस्वरूपत्वात्पावकोष्णवदिति । (कलश--मंदाक्रांता) आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानद्रग्धर्मयुक्त: तस्मिन्नेव स्थितिमविचलां तां परिप्राप्य नित्यम् । सम्यग्द्रष्टिर्निखिलकरणग्रामनीहारभास्वान्मुक्तिं याति स्फुटितसहजावस्थया संस्थितां ताम् ॥२७९॥ यह, एकान्त से आत्मा को पर-प्रकाशकपना होने की बात का खण्डन है । जिसप्रकार पहले (१६२वीं गाथा में) एकान्त से ज्ञान को पर-प्रकाशकपना खण्डित किया गया है, उसीप्रकार अब यदि 'आत्मा केवल पर-प्रकाशक है' ऐसा माना जाये तो वह बात भी उसीप्रकार खण्डन प्राप्त करती है, क्योंकि *भाव और भाववान एक अस्तित्व से रचित होते हैं । पहले (१६२वीं गाथा में) ऐसा बतलाया था कि यदि ज्ञान (केवल) पर-प्रकाशक हो तो ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! यहाँ (इस गाथा में) ऐसा समझना कि यदि आत्मा (केवल) पर-प्रकाशक हो तो आत्मा से ही दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! और यदि 'आत्मा पर-द्रव्यगत नहीं है (आत्मा केवल पर-प्रकाशक नहीं है, स्व-प्रकाशक भी है )' ऐसा (अब) माना जाये तो आत्मा से दर्शन की (सम्यक् प्रकार से) अभिन्नता सिद्ध होगी ऐसा समझना । इसलिये वास्तव में आत्मा स्व-पर प्रकाशक है । जिसप्रकार (१६२वीं गाथा में) ज्ञान का कथंचित् स्व-पर प्रकाशकपना सिद्ध हुआ उसीप्रकार आत्मा का भी समझना, क्योंकि अग्नि और उष्णता की भाँति धर्मी और धर्म का एक स्वरूप होता है । (कलश--हरिगीत)
ज्ञान-दर्शन धर्मों से युक्त होने के कारण आत्मा वास्तव में धर्मी है । सकल इन्द्रिय समूहरूपी हिम को (नष्ट करने के लिये) सूर्य समान ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव उसी में (ज्ञान दर्शन धर्म युक्त आत्मा में ही) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त होता है -- कि जो मुक्ति प्रगट हुई सहज दशारूप से सुस्थित है ।इन्द्रियविषयहिमरवि सम्यग्दृष्टि निर्मल आतमा । रे ज्ञान-दर्शन धर्म से संयुक्त धर्मी आतमा ॥ में अचलता को प्राप्त कर जो मुक्तिरमणी को वरें । चिरकालतक वे जीव सहजानन्द में स्थित रहें ॥२७९॥ *ज्ञान भाव है और आत्मा भाववान है । |