
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
पूर्वसूत्रोपात्तपूर्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्ति रियम् ।केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनंभिन्नमेव । परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इतिचेत् सह्यविंध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत् । आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव,निराधारत्वात् तस्य ज्ञानस्य शून्यतापत्तिरेव, अथवा यत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्द्रव्यंसर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतनः पदार्थः इति महतो दूषणस्यावतारः । तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यते हे शिष्य तर्हि दर्शनमपिन केवलमात्मगतमित्यभिहितम् । ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्तहृदयं ज्ञान-दर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति । तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवैः - ज्ञानाद्भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत् ताभ्यां युक्त : स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम् । संज्ञाभेदादघकुलहरे चात्मनि ज्ञानद्रष्टयोः भेदो जातो न खलु परमार्थेन वह्नयुष्णवत्सः ॥२७८॥ यह, पूर्व सूत्र में (१६१वीं गाथा में) कहे हुए पूर्वपक्ष के सिद्धान्त सम्बन्धी कथन है । यदि ज्ञान केवल पर-प्रकाशक हो तो इस पर-प्रकाशनप्रधान (पर-प्रकाशक) ज्ञान से दर्शन भिन्न ही सिद्ध होगा; (क्योंकि) सह्याचल और विंध्याचल की भाँति अथवा गङ्गा और श्रीपर्वतकी भाँति, पर-प्रकाशक ज्ञान को और आत्म-प्रकाशक दर्शन को सम्बन्ध किसप्रकार होगा ? जो आत्मनिष्ठ (आत्मा में स्थित) है वह तो दर्शन ही है । और उस ज्ञान को तो, निराधारपने के कारण (आत्मारूपी आधार न रहने से), शून्यता की आपत्ति ही आयेगी; अथवा तो जहाँ-जहाँ ज्ञान पहुँचेगा (जिस-जिस द्रव्य को ज्ञान पहुँचेगा) वे वे सर्व द्रव्य चेतनता को प्राप्त होंगे, इसलिये तीन-लोक में कोई अचेतन पदार्थ सिद्ध नहीं होगा यह महान दोष प्राप्त होगा । इसीलिये (उपरोक्त दोष के भय से), हे शिष्य ! ज्ञान केवल पर-प्रकाशक नहीं है ऐसा यदि तू कहे, तो दर्शन भी केवल आत्मगत (स्व-प्रकाशक) नहीं है ऐसा भी (उसमें साथ ही) कहा जा चुका है । इसलिये वास्तव में सिद्धान्त के हार्दरूप ऐसा यही समाधान है कि ज्ञान और दर्शन को कथंचित् स्व-पर प्रकाशकपना है ही । इसीप्रकार श्री महासेनपंडितदेव ने (श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--कुण्डलिया)
आत्मा ज्ञान से (सर्वथा) भिन्न नहीं है, (सर्वथा) अभिन्न नहीं है, कथंचित् भिन्नाभिन्न है; *पूर्वापरभूत जो ज्ञान सो यह आत्मा है ऐसा कहा है ।अरे ज्ञान से आत्मा, नहीं सर्वथा भिन्न । अर अभिन्न भी है नहीं, यह है भिन्नाभिन्न ॥ यह है भिन्नाभिन्न कथंचित् नहीं सर्वथा । अरे कथंचित् भिन्न अभिन्न भी किसी अपेक्षा ॥ जैनधर्म में नहीं सर्वथा कुछ भी होता । पूर्वापर जो ज्ञान आतमा वह ही होता ॥६४॥ और (कलश--हरिगीत)
आत्मा (सर्वथा) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार (सर्वथा) दर्शन भी नहीं ही है; वह उभययुक्त (ज्ञान दर्शन युक्त) आत्मा स्व-पर विषय को अवश्य जानता है और देखता है । अघसमूह (पापसमूह) के नाशक आत्मा में और ज्ञान-दर्शन में संज्ञा-भेद से भेद उत्पन्न होता है (संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा से उनमें उपरोक्तानुसार भेद है), परमार्थ से अग्नि और उष्णता की भाँति उनमें (आत्मा में और ज्ञान-दर्शन में) वास्तव में भेद नहीं है (अभेदता है) ।यह आतमा न ज्ञान है दर्शन नहीं है आतमा । रे स्वपर जाननहार दर्शनज्ञानमय है आतमा ॥ इस अघविनाशक आतमा अर ज्ञान-दर्शन में सदा । भेद है नामादि से परमार्थ से अन्तर नहीं ॥२७८॥ * पूर्वापर = पूर्व और अपर; पहले का और बाद का । |