
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयनयेन स्वरूपाख्यानमेतत् । निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहितं तथा सकलावरणप्रमुक्त शुद्ध-दर्शनमपि स्वप्रकाशकपरमेव । आत्मा हि विमुक्त सकलेन्द्रियव्यापारत्वात् स्वप्रकाशकत्वलक्षण-लक्षित इति यावत् । दर्शनमपि विमुक्त बहिर्विषयत्वात् स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेव । इत्थं स्वरूप-प्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्धज्ञानदर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिस्थावरजंग-मात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्यायविषयेषु 'आकाशाप्रकाशकादिविकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे' संज्ञा-लक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वादनवरतम् अखंडाद्वैतचिच्चमत्कारमूर्तिरात्मा तिष्ठतीति । (कलश--मंदाक्रांता) आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं याद्रष्टिः साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः । एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि ॥२८१॥ यह, निश्चयनय से स्वरूप का कथन है । यहाँ निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान का लक्षण स्व-प्रकाशकपना कहा है; उसीप्रकार सर्व आवरण से मुक्त शुद्ध दर्शन भी स्व-प्रकाशक ही है । आत्मा वास्तव में, उसने सर्व इन्द्रिय व्यापार को छोड़ा होने से, स्व-प्रकाशक स्वरूप लक्षण से लक्षित है; दर्शन भी, उसने बहिर्विषयपना छोड़ा होने से, स्व-प्रकाशकत्व प्रधान ही है । इसप्रकार स्वरूप प्रत्यक्ष - लक्षण से लक्षित अखण्ड - सहज - शुद्ध ज्ञान दर्शनमय होने के कारण, निश्चय से, त्रिलोक - त्रिकालवर्ती स्थावर-जंगम स्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायरूप विषयों सम्बन्धी प्रकाश्य - प्रकाशकादि विकल्पों से अति दूर वर्तता हुआ, स्व-स्वरूप संचेतन जिसका लक्षण है ऐसे प्रकाश द्वारा सर्वथा अंतर्मुख होने के कारण, आत्मा निरन्तर अखण्ड - अद्वैत - चैतन्य चमत्कारमूर्ति रहता है । (कलश--हरिगीत)
निश्चय से आत्मा स्व-प्रकाशक ज्ञान है; जिसने बाह्य आलंबन नष्ट किया है ऐसा (स्व-प्रकाशक) जो साक्षात् दर्शन उस-रूप भी आत्मा है । एकाकार निजरस के फैलाव से पूर्ण होने के कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण (सनातन) है ऐसा यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमा में निश्चितरूप से वास करता है ।
परमार्थ से यह निजप्रकाशक ज्ञान ही है आतमा । बाह्य आलम्बन रहित जो दृष्टि उसमय आतमा ॥ स्वरस के विस्तार से परिपूर्ण पुण्य-पुराण यह । निर्विकल्पक महिम एकाकार नित निज में रहे ॥२८१॥ |