+ शुद्धनिश्चयनय से पर-दर्शन का खण्डन -
अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं ।
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ॥166॥
आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोकौ न केवली भगवान् ।
यदि कोपि भणत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥१६६॥
प्रभु केवली निजरूप देखें और लोकालोक ना ।
यदि कोइ यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६६॥
अन्वयार्थ : [केवली भगवान्] (निश्चय से) केवली भगवान [आत्मस्वरूपं] आत्म-स्वरूप को [पश्यति] देखते हैं, [न लोकालोकौ] लोकालोक को नहीं -- [एवं] ऐसा [यदि] यदि [कः अपि भणति] कोई कहे तो [तस्यच किं दूषणं भवति] उसे क्या दोष है ?
Meaning : (From the real point of view), omniscient Lord realises the nature of the self only, but not the universe and the Non-universe, If one argues like that, what blame can be laid upon him ?

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
शुद्धनिश्चयनयविवक्षया परदर्शनत्वनिरासोऽयम् ।
व्यवहारेण पुद्गलादित्रिकालविषयद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमल-केवलावबोधमयत्वादिविविधमहिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिरपेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात् केवलस्वरूपप्रत्यक्षमात्रव्यापारनिरतनिरंजननिजसहजदर्शनेनसच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्व-वेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम् ।
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः ॥२८२॥



यह, शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा से पर दर्शन का (पर को देखने का) खण्डन है । यद्यपि व्यवहार से एक समय में तीन काल सम्बन्धी पुद्गलादि द्रव्य-गुण-पर्यायों को जानने में समर्थ सकल-विमल केवलज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओं का धारण करनेवाला है, तथापि वह भगवान, केवलदर्शनरूप तृतीय लोचनवाला होने पर भी, परम निरपेक्षपने के कारण निःशेषरूप से (सर्वथा) अन्तर्मुख होने से केवल स्वरूप प्रत्यक्षमात्र व्यापार में लीन ऐसे निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्मा को निश्चय से देखता है (परन्तु लोकालोक को नहीं) — ऐसा जो कोई भी शुद्ध अन्तःतत्त्व का वेदन करनेवाला (जाननेवाला, अनुभव करनेवाला) परम जिनयोगीश्वर शुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से कहता है, उसे वास्तव में दूषण नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
अत्यन्त अविचल और अन्तर्मग्न नित गंभीर है ।
शुद्धि का आवास महिमावंत जो अति धीर है ॥
व्यवहार के विस्तार से है पार जो परमातमा ।
उस सहज स्वातमराम को नित देखता यह आतमा ॥२८२॥
आत्मा सहज परमात्मा को देखता है -- कि जो परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अन्तःशुद्धि का आवास होने से (केवल ज्ञानदर्शनादि) महिमा का धारण करनेवाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मा में अत्यन्त अविचल होने से सर्वदा अन्तर्मग्न है । स्वभाव से महान ऐसे उस आत्मा में व्यवहार प्रपंच है ही नहीं । (निश्चय से आत्मा में लोकालोक को देखनेरूप व्यवहार विस्तार है ही नहीं)