
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
गुणगुणिनोः भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत् । सकलपरद्रव्यपराङ्मुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्यत्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि । तत्त्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्रसंदेहो नास्ति । (कलश--अनुष्टुभ्) आत्मानं ज्ञानद्रग्रूपं विद्धिद्रग्ज्ञानमात्मकं । स्वं परं चेति यत्तत्त्वमात्मा द्योतयति स्फुटम् ॥२८७॥ यह, गुण - गुणी में भेद का अभाव होनेरूप स्वरूप का कथन है । हे शिष्य ! सर्व पर-द्रव्य से पराङ्मुख आत्मा को तू निज स्वरूप को जानने में समर्थ सहज ज्ञान-स्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान । इसलिये तत्त्व (स्वरूप) ऐसा है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्व-पर प्रकाशक हैं । इसमें सन्देह नहीं है । (कलश--सोरठा)
आत्मा को ज्ञान-दर्शनरूप जान और ज्ञान-दर्शन को आत्मा जान; स्व और पर ऐसे तत्त्व को (समस्त पदार्थों को) आत्मा स्पष्टरूप से प्रकाशित करता है ।
आतम दर्शन-ज्ञान दर्श-ज्ञान है आतमा । यह सिद्धान्त महान स्व-पर प्रकाशे आतमा ॥२८७॥ |