+ वास्तव में ज्ञानी को बन्ध के अभाव -
परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ ।
परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ॥173॥
ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ ।
ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ॥174॥
परिणामपूर्ववचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति ।
परिणामरहितवचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ॥१७३॥
ईहापूर्वं वचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति ।
ईहारहितं वचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ॥१७४॥
रे बन्ध कारण जीव को परिणामपूर्वक वचन हैं ।
है बन्ध ज्ञानी को नहीं परिणाम विरहित वचन है ॥१७३॥
है बन्ध कारण जीव को इच्छा सहित वाणी अरे ।
इच्छा रहित वाणी अतः ही बन्ध नहिं ज्ञानी करे ॥१७४॥
अन्वयार्थ : [परिणामपूर्ववचनं] परिणाम-पूर्वक (मन-परिणाम पूर्वक) वचन [जीवस्य च] जीव को [बंधकारणं] बन्ध का कारण [भवति] है; [परिणामरहितवचनं] (ज्ञानी को) परिणाम-रहित वचन होता है [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानिनः] ज्ञानी को [हि] वास्तव में [बंधः न] बंध नहीं है ।
[ईहापूर्वं] इच्छापूर्वक [वचनं] वचन [जीवस्य च] जीव को [बंधकारणं] बन्ध का कारण [भवति] है; [ईहारहितं वचनं] (ज्ञानी को) इच्छा-रहित वचन होता है [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानिनः] ज्ञानी को [हि] वास्तव में [बंधः न] बंध नहीं है ।
Meaning : Speech arising from thought-activity, is the cause of bondage in a mundane soul; while speech independent of thought-activity cannot cause any bondage in the allknowing (soul).
Words uttered voluntarily do cause bondage in a mundane soal; while involuntary flow of speech does not cause any bondage in an all-knowing soul.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि ज्ञानिनो बंधाभावस्वरूपमुक्तम् ।
सम्यग्ज्ञानी जीवः क्वचित् कदाचिदपि स्वबुद्धिपूर्वकं वचनं न वक्ति स्वमनःपरिणाम-पूर्वकमिति यावत् । कुतः ? 'अमनस्काः केवलिनः' इति वचनात् । अतः कारणाज्जीवस्यमनःपरिणतिपूर्वकं वचनं बंधकारणमित्यर्थः, मनःपरिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति; ईहापूर्वं वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मकः समस्तजनहृदयाह्लादकारणम्; ततः सम्यग्ज्ञानिनो बंधाभाव इति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
ईहापूर्वं वचनरचनारूपमत्रास्ति नैव
तस्मादेषः प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता ।
अस्मिन् बंधः कथमिव भवेद्द्रव्यभावात्मकोऽयं
मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषादिजालम् ॥२८९॥
(कलश--मंदाक्रांता)
एको देवस्त्रिभुवनगुरुर्नष्टकर्माष्टकार्धः
सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् ।
आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः
तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च ॥२९०॥
(कलश--मंदाक्रांता)
न ह्येतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो
रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः ।
एषः श्रीमान् स्वसुखनिरतः सिद्धिसीमन्तिनीशो
ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात् ॥२९१॥



यहाँ वास्तव में ज्ञानी को बन्ध के अभाव का स्वरूप कहा है ।

सम्यग्ज्ञानी जीव कहीं कभी स्व-बुद्धिपूर्वक अर्थात् स्वमन-परिणामपूर्वक वचन नहीं बोलता । क्यों ? 'अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से । इस कारण से (ऐसा समझना कि) -- जीव को मन परिणति पूर्वक वचन बन्ध का कारण है ऐसा अर्थ है और मन परिणति पूर्वक वचन तो केवली को होता नहीं है; (तथा) इच्छापूर्वक वचन ही साभिलाष स्वरूप जीव को बन्ध का कारण है और केवली के मुखारविन्द से निकलती हुई, समस्त जनों के हृदय को आह्लाद के कारणभूत दिव्य-ध्वनि तो अनिच्छात्मक (इच्छा-रहित) होती है; इसलिये सम्यग्ज्ञानी को बन्ध का अभाव है ।

(कलश--हरिगीत)
ईहापूर्वक वचनरचनारूप न बस इसलिए ।
प्रकट महिमावंत जिन सब लोक के भरतार हैं ॥
निर्मोहता से उन्हें पूरण राग-द्वेषाभाव है ।
द्रव्य एवं भावमय कुछ बंध होगा किस तरह? ॥२८९॥
इनमें इच्छापूर्वक वचन-रचना का स्वरूप नहीं ही है; इसलिये वे प्रगट-महिमावंत हैं और समस्त लोक के एक (अनन्य) नाथ हैं । उन्हें द्रव्य-भाव स्वरूप ऐसा यह बन्ध किसप्रकार होगा ? (क्योंकि) मोह के अभाव के कारण उन्हें वास्तव में समस्त राग-द्वेषादि समूह तो है नहीं ।

(कलश--हरिगीत)
अरे जिनके ज्ञान में सब अर्थ हों त्रयलोक के ।
त्रयलोकगुरु चतुकर्मनाशक देव हैं त्रयलोक के ॥
न बंध है न मोक्ष है न मूर्छा न चेतना ।
वे नित्य निज सामान्य में ही पूर्णत: लवलीन हैं ॥२९०॥
समस्त लोक तथा उसमें स्थित पदार्थ-समूह जिनके सद्ज्ञान में स्थित हैं, वे (जिन भगवान) एक ही देव हैं । उन निकट (साक्षात्) जिन भगवान में न तो बन्ध है न मोक्ष, तथा उनमें न तो कोई मूर्छा है न कोई चेतना (क्योंकि द्रव्य-सामान्य का पूर्ण आश्रय है)

(कलश--हरिगीत)
धर्म एवं कर्म का परपंच न जिनदेव में ।
रे रागद्वेषाभाव से वे अतुल महिमावंत हैं ॥
वीतरागी शोभते श्रीमान् निज सुख लीन हैं ।
मुक्तिरमणी कंत ज्ञानज्योति से हैं छा गये ॥२९१॥
इन जिन भगवान में वास्तव में धर्म और कर्म का प्रपंच नहीं है (साधकदशा में जो शुद्धि और अशुद्धि के भेद-प्रभेद वर्तते हैं वे जिन-भगवान में नहीं हैं); राग के अभाव के कारण अतुल-महिमावन्त ऐसे वे (भगवान) वीतरागरूप से विराजते हैं । वे श्रीमान् (शोभावन्त भगवान) निज-सुख में लीन हैं, मुक्तिरूपी रमणी के नाथ हैं और ज्ञान-ज्योति द्वारा उन्होंने लोक के विस्तार को सर्वतः छा दिया है ।

साभिलाषस्वरूप = जिसका स्वरूप साभिलाष (इच्छायुक्त) हो ऐसे ।
मूर्च्छा = अभानपना; बेहोशी; अज्ञानदशा ।
चेतना = सभानपना; होश; ज्ञानदशा ।