
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि ज्ञानिनो बंधाभावस्वरूपमुक्तम् । सम्यग्ज्ञानी जीवः क्वचित् कदाचिदपि स्वबुद्धिपूर्वकं वचनं न वक्ति स्वमनःपरिणाम-पूर्वकमिति यावत् । कुतः ? 'अमनस्काः केवलिनः' इति वचनात् । अतः कारणाज्जीवस्यमनःपरिणतिपूर्वकं वचनं बंधकारणमित्यर्थः, मनःपरिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति; ईहापूर्वं वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मकः समस्तजनहृदयाह्लादकारणम्; ततः सम्यग्ज्ञानिनो बंधाभाव इति । (कलश--मंदाक्रांता) ईहापूर्वं वचनरचनारूपमत्रास्ति नैव तस्मादेषः प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता । अस्मिन् बंधः कथमिव भवेद्द्रव्यभावात्मकोऽयं मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषादिजालम् ॥२८९॥ (कलश--मंदाक्रांता) एको देवस्त्रिभुवनगुरुर्नष्टकर्माष्टकार्धः सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् । आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च ॥२९०॥ (कलश--मंदाक्रांता) न ह्येतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः । एषः श्रीमान् स्वसुखनिरतः सिद्धिसीमन्तिनीशो ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात् ॥२९१॥ यहाँ वास्तव में ज्ञानी को बन्ध के अभाव का स्वरूप कहा है । सम्यग्ज्ञानी जीव कहीं कभी स्व-बुद्धिपूर्वक अर्थात् स्वमन-परिणामपूर्वक वचन नहीं बोलता । क्यों ? 'अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से । इस कारण से (ऐसा समझना कि) -- जीव को मन परिणति पूर्वक वचन बन्ध का कारण है ऐसा अर्थ है और मन परिणति पूर्वक वचन तो केवली को होता नहीं है; (तथा) इच्छापूर्वक वचन ही १साभिलाष स्वरूप जीव को बन्ध का कारण है और केवली के मुखारविन्द से निकलती हुई, समस्त जनों के हृदय को आह्लाद के कारणभूत दिव्य-ध्वनि तो अनिच्छात्मक (इच्छा-रहित) होती है; इसलिये सम्यग्ज्ञानी को बन्ध का अभाव है । (कलश--हरिगीत)
इनमें इच्छापूर्वक वचन-रचना का स्वरूप नहीं ही है; इसलिये वे प्रगट-महिमावंत हैं और समस्त लोक के एक (अनन्य) नाथ हैं । उन्हें द्रव्य-भाव स्वरूप ऐसा यह बन्ध किसप्रकार होगा ? (क्योंकि) मोह के अभाव के कारण उन्हें वास्तव में समस्त राग-द्वेषादि समूह तो है नहीं ।ईहापूर्वक वचनरचनारूप न बस इसलिए । प्रकट महिमावंत जिन सब लोक के भरतार हैं ॥ निर्मोहता से उन्हें पूरण राग-द्वेषाभाव है । द्रव्य एवं भावमय कुछ बंध होगा किस तरह? ॥२८९॥ (कलश--हरिगीत)
समस्त लोक तथा उसमें स्थित पदार्थ-समूह जिनके सद्ज्ञान में स्थित हैं, वे (जिन भगवान) एक ही देव हैं । उन निकट (साक्षात्) जिन भगवान में न तो बन्ध है न मोक्ष, तथा उनमें न तो कोई २मूर्छा है न कोई ३चेतना (क्योंकि द्रव्य-सामान्य का पूर्ण आश्रय है) ।अरे जिनके ज्ञान में सब अर्थ हों त्रयलोक के । त्रयलोकगुरु चतुकर्मनाशक देव हैं त्रयलोक के ॥ न बंध है न मोक्ष है न मूर्छा न चेतना । वे नित्य निज सामान्य में ही पूर्णत: लवलीन हैं ॥२९०॥ (कलश--हरिगीत)
इन जिन भगवान में वास्तव में धर्म और कर्म का प्रपंच नहीं है (साधकदशा में जो शुद्धि और अशुद्धि के भेद-प्रभेद वर्तते हैं वे जिन-भगवान में नहीं हैं); राग के अभाव के कारण अतुल-महिमावन्त ऐसे वे (भगवान) वीतरागरूप से विराजते हैं । वे श्रीमान् (शोभावन्त भगवान) निज-सुख में लीन हैं, मुक्तिरूपी रमणी के नाथ हैं और ज्ञान-ज्योति द्वारा उन्होंने लोक के विस्तार को सर्वतः छा दिया है ।धर्म एवं कर्म का परपंच न जिनदेव में । रे रागद्वेषाभाव से वे अतुल महिमावंत हैं ॥ वीतरागी शोभते श्रीमान् निज सुख लीन हैं । मुक्तिरमणी कंत ज्ञानज्योति से हैं छा गये ॥२९१॥ १ साभिलाषस्वरूप = जिसका स्वरूप साभिलाष (इच्छायुक्त) हो ऐसे । २मूर्च्छा = अभानपना; बेहोशी; अज्ञानदशा । ३चेतना = सभानपना; होश; ज्ञानदशा । |