+ केवली को मन-रहितपना -
ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो ।
तम्हा ण होइ बंधो साक्खट्ठं मोहणीयस्स ॥175॥
स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्वं न भवन्ति केवलिनः ।
तस्मान्न भवति बंधः साक्षार्थं मोहनीयस्य ॥१७५॥
अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवर को नहीं ।
निर्बन्ध इससे, बन्ध करता मोह-वश साक्षार्थ ही ॥१७५॥
अन्वयार्थ : [केवलिनः] केवली को [स्थाननिषण्णविहाराः] खड़े रहना, बैठना और विहार [ईहापूर्वं] इच्छापूर्वक [न भवन्ति] नहीं होते, [तस्मात्] इसलिये [बंध न भवति] उन्हें बन्ध नहीं है; [मोहनीयस्य] मोहनीयवश जीव को [साक्षार्थम्] इन्द्रिय-विषय सहितरूप से बन्ध होता है ।
Meaning : Bodily activities - standing, sitting, and moving - of the Omniscient Lord are not due to volition; hence, these activities do not cause bondage of karmas. Bondage of karmas takes place on indulgence in sense-objects, driven by delusion (moha).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
केवलिभट्टारकस्यामनस्कत्वप्रद्योतनमेतत् ।
भगवतः परमार्हन्त्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिनः परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं नकिमपि वर्तनम्; अतः स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्काः केवलिनःइति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्वं श्रीविहारादिकं करोति । तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुर्विधबंधो न भवति । स च बंधः पुनः किमर्थं जातःकस्य संबंधश्च ? मोहनीयकर्मविलासविजृंभितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति ।
तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे -
ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं ।
अरहंताणं काले मायाचारोव्व इत्थीणं ॥
(कलश--शार्दूलविक्रीडित)
देवेन्द्रासनकंपकारणमहत्कैवल्यबोधोदये
मुक्ति श्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः ।
सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्वं पुराणस्य तत्
सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ॥२९२॥



यह, केवली भट्टारक को मन-रहितपने का प्रकाशन है (यहाँ केवली भगवान का मन-रहितपना दर्शाया है)

अर्हंतयोग्य परम लक्ष्मी से विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवली भगवान को इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि मन-प्रवृत्ति का अभाव है; अथवा, वे इच्छा-पूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि 'अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं)' ऐसा शास्त्र का वचन है । इसलिये उन तीर्थंकर - परमदेव को द्रव्य-भाव-स्वरूप चतुर्विध बंध (प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध) नहीं होता । और, वह बंध (१) किस कारण से होता है तथा (२) किसे होता है ? (१) बन्ध मोहनीय-कर्म के विलास से उत्पन्न होता है । (२) 'अक्षार्थ' अर्थात् इन्द्रियार्थ (इन्द्रिय-विषय); अक्षार्थ सहित हो वह 'साक्षार्थ'; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थप्रयोजन (इन्द्रिय विषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियों को ही बंध होता है ।

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों ।
हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरहंत के ॥७१॥
उन अर्हंत भगवंतों को उस काल खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचार की भाँति, स्वाभाविक ही (प्रयत्न बिना ही) होते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
इन्द्र आसन कंप कारण महत केवलज्ञानमय ।
शिवप्रियामुखपद्मरवि सद्धर्म के रक्षामणि ॥
सर्ववर्तन भले हो पर मन नहीं है सर्वथा ।
पापाटवीपावक जिनेश्वर अगम्य महिमावंत हैं ॥२९२॥
देवेन्द्रों के आसन कम्पायमान होने के कारणभूत महा केवल-ज्ञान का उदय होने पर, जो मुक्ति-लक्ष्मीरूपी स्त्री के मुख-कमल के सूर्य हैं और सद्धर्म के *रक्षामणि हैं ऐसे पुराण-पुरुष को सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तव में अगम्य महिमावन्त हैं और पापरूपी वन को जलानेवाली अग्नि समान हैं ।

*रक्षामणि = आपत्तियों से अथवा पिशाच आदि से अपने को बचाने के लिये पहिना जानेवाला मणि । (केवलीभगवान सद्धर्म की रक्षा के लिये — असद्धर्म से बचनेके लिये — रक्षामणि हैं ।)