
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
केवलिभट्टारकस्यामनस्कत्वप्रद्योतनमेतत् । भगवतः परमार्हन्त्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिनः परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं नकिमपि वर्तनम्; अतः स भगवान् न चेहते मनःप्रवृत्तेरभावात्; अमनस्काः केवलिनःइति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्वं श्रीविहारादिकं करोति । तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुर्विधबंधो न भवति । स च बंधः पुनः किमर्थं जातःकस्य संबंधश्च ? मोहनीयकर्मविलासविजृंभितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति । तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे - ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं । अरहंताणं काले मायाचारोव्व इत्थीणं ॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) देवेन्द्रासनकंपकारणमहत्कैवल्यबोधोदये मुक्ति श्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः । सर्वं वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्वं पुराणस्य तत् सोऽयं नन्वपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ॥२९२॥ यह, केवली भट्टारक को मन-रहितपने का प्रकाशन है (यहाँ केवली भगवान का मन-रहितपना दर्शाया है) । अर्हंतयोग्य परम लक्ष्मी से विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवली भगवान को इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि मन-प्रवृत्ति का अभाव है; अथवा, वे इच्छा-पूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि 'अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं)' ऐसा शास्त्र का वचन है । इसलिये उन तीर्थंकर - परमदेव को द्रव्य-भाव-स्वरूप चतुर्विध बंध (प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध) नहीं होता । और, वह बंध (१) किस कारण से होता है तथा (२) किसे होता है ? (१) बन्ध मोहनीय-कर्म के विलास से उत्पन्न होता है । (२) 'अक्षार्थ' अर्थात् इन्द्रियार्थ (इन्द्रिय-विषय); अक्षार्थ सहित हो वह 'साक्षार्थ'; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थप्रयोजन (इन्द्रिय विषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियों को ही बंध होता है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
उन अर्हंत भगवंतों को उस काल खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचार की भाँति, स्वाभाविक ही (प्रयत्न बिना ही) होते हैं ।यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों । हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरहंत के ॥७१॥ (कलश--हरिगीत)
देवेन्द्रों के आसन कम्पायमान होने के कारणभूत महा केवल-ज्ञान का उदय होने पर, जो मुक्ति-लक्ष्मीरूपी स्त्री के मुख-कमल के सूर्य हैं और सद्धर्म के *रक्षामणि हैं ऐसे पुराण-पुरुष को सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तव में अगम्य महिमावन्त हैं और पापरूपी वन को जलानेवाली अग्नि समान हैं ।इन्द्र आसन कंप कारण महत केवलज्ञानमय । शिवप्रियामुखपद्मरवि सद्धर्म के रक्षामणि ॥ सर्ववर्तन भले हो पर मन नहीं है सर्वथा । पापाटवीपावक जिनेश्वर अगम्य महिमावंत हैं ॥२९२॥ *रक्षामणि = आपत्तियों से अथवा पिशाच आदि से अपने को बचाने के लिये पहिना जानेवाला मणि । (केवलीभगवान सद्धर्म की रक्षा के लिये — असद्धर्म से बचनेके लिये — रक्षामणि हैं ।) |