+ मंगलाचरण -
काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स
दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकमं समासेण ॥1॥
कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य ।
दर्शनमार्गं वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ॥१॥
कर नमन जिनवर वृषभ एवं वीर श्री वर्धमान को ।
संक्षिप्त दिग्दर्शन यथाक्रम करूँ दर्शनमार्ग का ॥१॥
अन्वयार्थ : [जिणवरवसहस्स] कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वालों में वृषभ-श्रेष्ठ [वड्ढमाणस्स] श्री वर्धमान भगवान् को, अथवा गणादि गुणों से वर्धमान -निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होने वाले जिनवरवृषभ-भगवान् वृषभ देव प्रथम तीर्थंकर अथवा समस्त तीर्थंकरों को [णमुक्कारं] नमस्कार [काऊण] कर मैं (कुन्दकुन्ददेवा) [जहाकमं] अनुक्रम से [समासेण] संक्षेप में [दंसणमग्गं] दर्शन के मार्ग (मोक्षमार्ग) का स्वरुप [वोच्छामि] कहूँगा ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

यहाँ 'जिनवर वृषभ' विशेषण है; उसमें जो जिन शब्द है उसका अर्थ ऐसा है कि -- जो कर्म-शत्रु को जीते सो जिन । वहाँ सम्यग्दृष्टि अव्रती से लेकर कर्म की गुणश्रेणी-रूप निर्जरा करनेवाले सभी जिन हैं उनमें वर अर्थात् श्रेष्ठ । इस प्रकार गणधर आदि मुनियों को जिनवर कहा जाता है; उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान ऐसे भगवान तीर्थंकर परम देव हैं । उनमें प्रथम तो श्री ऋषभदेव हुए और इस पंचमकाल के प्रारंभ तथा चतुर्थकाल के अन्तमें अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान-स्वामी हुए हैं । वे समस्त तीर्थंकर जिनवर वृषभ हुए हैं उन्हें नमस्कार हुआ । वहाँ 'वर्द्धमान' ऐसा विशेषण सभी के लिये जानना; क्योंकि सभी अन्तरंग एवं बाह्य लक्ष्मी से वर्द्धमान हैं । अथवा जिनवर वृषभ शब्द से तो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभ-देव को और वर्द्धमान शब्द से अन्तिम तीर्थंकर को जानना । इस प्रकार आदि और अन्तके तीर्थंकरों को नमस्कार करने से मध्य के तीर्थंकरों को भी सामर्थ्य से नमस्कार जानना । तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतराग को तो परम-गुरु कहते हैं और उनकी परिपाटी में चले आ रहे गौतमादि मुनियों को जिनवर विशेषण दिया, उन्हें अपर-गुरु कहते हैं; -- इसप्रकार परापर गुरुओंका प्रवाह जानना । वे शास्त्र की उत्पत्ति तथा ज्ञान के कारण हैं । उन्हें ग्रन्थ के आदि में नमस्कार किया ॥१॥