+ दर्शन-रहित अवन्दनीय -
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो ॥2॥
दर्शनमूलो धर्म: उपदिष्ट: जिनवरै: शिष्याणाम्‌ ।
तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्य: ॥२॥
सद्धर्म का है मूल दर्शन जिनवरेन्द्रों ने कहा ।
हे कानवालो सुनो ! दर्शनहीन वंदन योग्य ना ॥२॥
अन्वयार्थ : [जिणवरेहिं] जिनेन्द्र भगवान ने [सिस्साणं] शिष्यों के लिए [दंसण] दर्शन [मूलो] मूलक [धम्मो] धर्म का [उवइट्ठो] उपदेश दिया है, सो [तं] उसे [सकण्णे] अपने कानों से [सोऊण] सुनकर [दंसणहीणो] दर्शन रहित मनुष्यों की [वंदिव्वो] वन्दना [ण] नही करनी चाहिए ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

जिनवर जो सर्वज्ञदेव हैं, उन्होंने शिष्य जो गणधर आदिक को धर्म का उपदेश दिया है; कैसा उपदेश दिया है ? कि दर्शन जिसका मूल है । मूल कहाँ होता है कि जैसे मन्दिर की नींव और वृक्ष की जड़ होती है, उसीप्रकार धर्म का मूल दर्शन है । इसलिए आचार्य उपदेश देते हैं कि हे सकर्ण अर्थात्‌ सत्पुरुषो ! सर्वज्ञ के कहे हुए उस दर्शनमूलरूप धर्म को अपने कानों से सुनकर जो दर्शन से रहित हैं, वे वंदन योग्य नहीं हैं; इसलिए दर्शनहीन की वंदना मत करो । जिसके दर्शन नहीं है, उसके धर्म भी नहीं है, क्योंकि मूलरहित वृक्ष के स्कन्ध, शाखा, पुष्प फलादिक कहाँ से होंगे? इसलिए यह उपदेश है कि जिसके धर्म नहीं है, उससे धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर धर्म के निमित्त उसकी वंदना किसलिए करें ? - ऐसा जानना ।

अब, यहाँ धर्म का तथा दर्शन का स्वरूप जानना चाहिए । वह स्वरूप तो संक्षेप में ग्रन्थकार ही आगे कहेंगे, तथापि कुछ अन्य ग्रन्थों के अनुसार यहाँ भी दे रहे हैं - 'धर्म' शब्द का अर्थ यह है कि जो आत्मा को संसार से उबारकर सुखस्थान में स्थापित करे सो धर्म है और दर्शन अर्थात्‌ देखना । इसप्रकार धर्म की मूर्ति दिखायी दे, वह दर्शन है तथा प्रसिद्धि में जिसमें धर्म का ग्रहण हो ऐसे मत को 'दर्शन' कहा है । लोक में धर्म की तथा दर्शन की मान्यता सामान्यरूप से तो सबके हैं, परन्तु सर्वज्ञ के बिना यथार्थ स्वरूप का जानना नहीं हो सकता; परन्तु छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि से अनेक स्वरूपों की कल्पना करके अन्यथा स्वरूप स्थापित करके उनकी प्रवृत्ति करते हैं और जिनमत सर्वज्ञ की परम्परा से प्रवर्तमान है, इसलिए इसमें यथार्थ स्वरूप का प्ररूपण है ।

वहाँ धर्म को निश्चय और व्यवहार - ऐसे दो प्रकार से साधा है । उसकी प्ररूपणा चार प्रकार से है -
  • प्रथम वस्तु-स्वभाव,
  • दूसरे उत्तम क्षमादिक दस प्रकार,
  • तीसरे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप और
  • चौथे जीवों की रक्षारूप
ऐसे चार प्रकार हैं । वहाँ निश्चय से सिद्ध किया जाय, तब तो सबमें एक ही प्रकार है, इसलिए वस्तु-स्वभाव का तात्पर्य तो जीव नामक वस्तु की परमार्थरूप दर्शन-ज्ञान-परिणाममयी चेतना है और वह चेतना सर्व विकारों से रहित शुद्ध-स्वभावरूप परिणमित हो, वही जीव का धर्म है तथा उत्तम क्षमादिक दश प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि आत्माक्रोधादि कषायरूप न होकर अपने स्वभाव में स्थिर हो वही धर्म है, यह भी शुद्ध चेतनारूप ही हुआ ।

दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहने का तात्पर्य यह है कि तीनों एक ज्ञान-चेतना के ही परिणाम हैं, वही ज्ञानस्वभावरूप धर्म है और जीवों की रक्षा का तात्पर्य यह है कि जीव क्रोधादि कषायों के वश होकर अपनी या पर की पर्याय के विनाशरूप मरण तथा दु:ख संक्लेश परिणाम न करे - ऐसा अपना स्वभाव ही धर्म है । इसप्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिकरूप निश्चय-नय से साधा हुआ धर्म एक ही प्रकार है ।

व्यवहार-नय पर्यायाश्रित है इसलिए भेद-रूप है, व्यवहार-नय से विचार करें तो जीव के पर्याय-रूप परिणाम अनेक-प्रकार हैं इसलिए धर्म का भी अनेक प्रकार से वर्णन किया है । वहाँ
  1. प्रयोजन-वश एकदेश का सर्वदेश से कथन किया जाये सो व्यवहार है,
  2. अन्य वस्तु में अन्य का आरोपण अन्य के निमित्त से और प्रयोजनवश किया जाये वह भी व्यवहार है, वहाँ वस्तु-स्वभाव कहने का तात्पर्य तो निर्विकार चेतना के शुद्ध-परिणाम के साधकरूप,
  3. मंद-कषाय-रूप शुभ परिणाम है तथा जो बाह्य-क्रियाएँ हैं, उन सभी को व्यवहार-धर्म कहा जाता है । उसी प्रकार रत्नत्रय का तात्पर्य स्वरूप के भेद दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा उनके कारण बाह्य क्रियादिक हैं, उन सभी को व्यवहार धर्म कहा जाता है । उसीप्रकार
  4. जीवों की दया कहने का तात्पर्य यह है कि क्रोधादि मंद-कषाय होने से अपने या पर के मरण, दु:ख, क्लेश आदि न करना; उसके साधक समस्त बाह्य-क्रियादिक को धर्म कहा जाता है ।
इसप्रकार जिनमत में निश्चय-व्यवहार-नय से साधा हुआ धर्म कहा है ।

वहाँ एकस्वरूप अनेकस्वरूप कहने में स्याद्वाद से विरोध नहीं आता, कथञ्चित्‌ विवक्षा से सर्व प्रमाण-सिद्ध है । ऐसे धर्म का मूल दर्शन कहा है, इसलिए ऐसे धर्म की श्रद्धा, प्रतीति, रुचिसहित आचरण करना ही दर्शन है, यह धर्म की मूर्ति है, इसी को मत (दर्शन) कहते हैं और यही धर्म का मूल है तथा ऐसे धर्म की प्रथम श्रद्धा, प्रतीति, रुचि न हो तो धर्म का आचरण भी नहीं होता । जैसे वृक्ष के मूल बिना स्कंधादिक नहीं होते । इसप्रकार दर्शन को धर्म का मूल कहना युक्त है । ऐसे दर्शन का सिद्धान्तों में जैसा वर्णन है, तदनुसार कुछ लिखते हैं ।

वहाँ अंतरंग सम्यग्दर्शन तो जीव का भाव है, वह निश्चय द्वारा उपाधिरहित शुद्ध जीव का साक्षात्‌ अनुभव होना ऐसा एक प्रकार है । वह ऐसा अनुभव अनादिकाल से मिथ्यादर्शन नामक कर्म के उदय से अन्यथा हो रहा है । सादि मिथ्यादृष्टि के उस मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियाँ सत्त में होती हैं - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्‌ प्रकृति तथा उनकी सहकारिणी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से चार कषाय नामक प्रकृतियाँ हैं । इसप्रकार यह सात प्रकृतियाँ ही सम्यग्दर्शन का घात करनेवाली हैं; इसलिए इन सातों का उपशम होने से पहले तो इस जीव के उपशमसम्यक्त्व होता है । इन प्रकृतियों का उपशम होने का बाह्य कारण सामान्यत: द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हैं, उनमें द्रव्य में तो साक्षात्‌ तीर्थंकर के देखनादि (दर्शनादि) प्रधान हैं, क्षेत्र में समवसरणादिक प्रधान हैं, काल में अर्द्धपुद्‌गलपरावर्तन संसार भ्रमण शेष रहे वह तथा भाव में अध:प्रवृत्त करण आदिक हैं ।

(सम्यक्त्व के बाह्य कारण) विशेषरूप से तो अनेक हैं । उनमें से कुछ के तो अरिहंत बिम्ब का देखना, कुछ के जिनेन्द्र के कल्याणक आदि की महिमा देखना, कुछ के जातिस्मरण, कुछ के वेदना का अनुभव, कुछ के धर्म श्रवण तथा कुछ के देवों की ऋद्धि का देखना इत्यादि बाह्य कारणों द्वारा मिथ्यात्वकर्म का उपशम होने से उपशमसम्यक्त्व होता है । तथा इन सात प्रकृतियों में छह का तो उपशम या क्षय हो और एक सम्यक्त्व प्रकृति का उदय हो, तब क्षयोपशम सम्य-क्त्व होता है । इस प्रकृति के उदय से किंचित्‌ अतिचार - मल लगता है तथा इन सात प्रकृतियों का सत्त में से नाश हो, तब क्षायिक सम्यक्त्व होता है ।

इसप्रकार उपशमादि होने पर जीव के परिणामभेद से तीन प्रकार होते हैं; वे परिणाम अति सूक्ष्म हैं, केवलज्ञानगम्य हैं, इसलिए इन प्रकृतियों के द्रव्य पुद्‌गलपरमाणुओं के स्कंध हैं, वे अतिसूक्ष्म हैं और उनमें फल देने की शक्तिरूप अनुभाग है, वह अतिसूक्ष्म है, वह छद्मस्थ के ज्ञानगम्य नहीं है । तथा उनका उपशमादिक होने से जीव के परिणाम भी सम्यक्त्वरूप होते हैं, वे भी अतिसूक्ष्म हैं, वे भी केवलज्ञानगम्य हैं । तथापि जीव के कुछ परिणाम छद्मस्थ के ज्ञान में आने योग्य होते हैं, वे उसे पहिचानने के बाह्य-चिह्न हैं, उनकी परीक्षा करके निश्चय करने का व्यवहार है - ऐसा न हो तो छद्मस्थ व्यवहारी जीव के सम्यक्त्व का निश्चय नहीं होगा और तब आस्तिक्य का अभाव सिद्ध होगा, व्यवहार का लोप होगा - यह महान दोष आयेगा । इसलिए बाह्य चिह्नों को आगम, अनुमान तथा स्वानुभव से परीक्षा करके निश्चय करना चाहिए ।

वे चिह्न कौन से हैं सो लिखते हैं - मुख्य चिह्न तो उपाधिरहित शुद्ध ज्ञान चेतनास्वरूप आत्मा की अनुभूति है । यद्यपि यह अनुभूति ज्ञान का विशेष है, तथापि वह सम्यक्त्व होने पर होती है, इसलिए उसे बाह्य चिह्न कहते हैं । ज्ञान तो अपना अपने को स्वसंवेदनरूप है; उसका रागादि विकाररहित शुद्धज्ञानमात्र का अपने को आस्वाद होता है कि - ‘‘जो यह शुद्ध ज्ञान है सो मैं हूँ और ज्ञान में जो रागादि विकार हैं, वे कर्म के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, वह मेरा स्वरूप नहीं है’’ - इसप्रकार भेदज्ञान से ज्ञानमात्र के आस्वादन को ज्ञान की अनूभूति कहते हैं, वही आत्मा की अनुभूति है तथा वही शुद्धनय का विषय है । ऐसी अनुभूति से शुद्धनय के द्वारा ऐसा भी श्रद्धान होता है कि जो सर्व कर्मजनित रागादिकभाव से रहित अनंतचतुष्टय मेरा स्वरूप है, अन्य सबभाव संयोगजनित हैं - ऐसी आत्मा की अनुभूति सो सम्यक्त्व का मुख्य चिह्न है । यह मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी के अभाव से सम्यक्त्व होता है, उसका चिह्न है; उस चिह्न को ही सम्यक्त्व कहना, सो व्यवहार है ।

उसकी परीक्षा सर्वज्ञ के आगम, अनुमान तथा स्वानुभव प्रत्यक्ष प्रमाण इन प्रमाणों से की जाती है । इसी को निश्चय तत्त्वार्थश्रद्धान भी कहते हैं । वहाँ अपनी परीक्षा तो अपने स्वसंवेदन की प्रधानता से होती है और पर की परीक्षा तो पर के अंतरंग तथा पर के वचन व काय की क्रिया से होती है, यह व्यवहार है, परमार्थ सर्वज्ञ जानते हैं । व्यवहारी जीव को सर्वज्ञ ने भी व्यवहार के ही शरण का उपदेश दिया है ।

(नोंध - अनुभूति ज्ञान गुण की पर्याय है, वह श्रद्धा गुण से भिन्न है; इसलिए ज्ञान के द्वारा श्रद्धान का निर्णय करना व्यवहार है, उसका नाम व्यवहारी जीवों को व्यवहार का ही शरण अर्थात्‌ आलम्बन समझना)

अनेक लोग कहते हैं कि - सम्यक्त्व तो केवलीगम्य है, इसलिए अपने को सम्यक्त्व होने का निश्चय नहीं होता, इसलिए अपने को सम्यग्दृष्टि नहीं मान सकते ? परन्तु इसप्रकार सर्वथा एकान्त से कहना तो मिथ्यादृष्टि है; सर्वथा ऐसा कहने से व्यवहार का लोप होगा, सर्व मुनि-श्रावकों की प्रवृत्ति मिथ्यात्वरूप सिद्ध होगी और सब अपने को मिथ्यादृष्टि मानेंगे तो व्यवहार कहाँ रहेगा ? इसलिए परीक्षा होने के पश्चात्‌ ऐसा श्रद्धान नहीं रखना चाहिए कि मैं मिथ्यादृष्टि ही हूँ । मिथ्यादृष्टि तो अन्यमती को कहते हैं और उसी के समान स्वयं भी होगा, इसलिए सर्वथा एकान्तपक्ष ग्रहण नहीं करना चाहिए तथा तत्त्वार्थश्रद्धान तो बाह्य चिह्न है ।

जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष - ऐसे सात तत्त्वार्थ हैं; उनमें पुण्य और पाप को जोड़ देने से नव पदार्थ होते हैं । उनकी श्रद्धा अर्थात्‌ सन्मुखता, रुचि अर्थात्‌ तद्रूप भाव करना तथा प्रतीति अर्थात्‌ जैसे सर्वज्ञ ने कहे हैं, तदनुसार ही अंगीकार करना और उनके आचरणरूप क्रिया - इसप्रकार श्रद्धानादिक होना सो सम्यक्त्व का बाह्य चिह्न है ।

तथा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य भी सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न हैं । वहाँ
  1. प्रशम - अनंतानुबंधी क्रोधादिक कषाय के उदय का अभाव सो प्रशम है । उसके बाह्य चिह्न जैसे कि सर्वथा एकान्त तत्त्वार्थ का कथन करनेवाले अन्य मतों का श्रद्धान, बाह्यवेश में सत्यार्थपने का अभिमान करना, पर्यायों में एकान्त के कारण आत्मबुद्धि से अभिमान तथा प्रीति करना वह अनंतानुबंधी का कार्य है, वह जिसके न हो तथा किसी ने अपना बुरा किया तो उसका घात करना आदि मिथ्यादृष्टि की भाँति विकारबुद्धि अपने को उत्पन्न न हो तथा वह ऐसा विचार करे कि मैंने अपने परिणामों से जो कर्म बाँधे थे, वे ही बुरा करनेवाले हैं, अन्य तो निमित्तमात्र हैं - ऐसी बुद्धि अपने को उत्पन्न हो - ऐसे मंदकषाय है तथा अनंतानुबंधी के बिना अन्य चारित्रमोह की प्रकृतियों के उदय से आरम्भादिक क्रिया में हिंसादिक होते हैं, उनको भी भला नहीं जानता; इसलिए उससे प्रशम का अभाव नहीं कहते ।

  2. संवेग - धर्म में और धर्म के फल में परम उत्साह हो वह संवेग है तथा साधर्मियों से अनुराग और परमेष्ठियों में प्रीति वह भी संवेग ही है तथा धर्म के फल में अभिलाषा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अभिलाषा तो उसे कहते हैं, जिसे इन्द्रियविषयों की चाह हो । अपने स्वरूप की प्राप्ति में अनुराग को अभिलाषा नहीं कहते ।

  3. निर्वेग - इस संवेग में ही निर्वेद भी हुआ समझना, क्योंकि अपने स्वरूप रूप धर्म की प्राप्ति में अनुराग हुआ, तब अन्यत्र सभी अभिलाष का त्याग हुआ, सर्व परद्रव्यों से वैराग्य हुआ, वही निर्वेग है ।

  4. अनुकम्पा - सर्व प्राणियों में उपकार की बुद्धि और मैत्रीभाव सो अनुकम्पा है तथा मध्यस्थभाव होने से सम्यग्दृष्टि के शल्य नहीं है, किसी से बैरभाव नहीं होता, सुख-दु:ख, जीवन-मरण अपना पर के द्वारा और पर का अपने द्वारा नहीं मानता है तथा पर में जो अनुकम्पा है सो अपने में ही है, इसलिए पर का बुरा करने का विचार करेगा तो अपने कषायभाव से स्वयं अपना ही बुरा हुआ; पर का बुरा नहीं सोचेगा तब अपने कषायभाव नहीं होंगे, इसलिए अपनी अनुकम्पा ही हुई ।

  5. आस्तिक्य - जीवादि पदार्थों में अस्तित्वभाव सो आस्तिक्यभाव है । जीवादि पदार्थों का स्वरूप सर्वज्ञ के आगम से जानकर उनमें ऐसी बुद्धि हो कि जैसे सर्वज्ञ ने कहे वैसे ही यह हैं, अन्यथा नहीं हैं, वह आस्तिक्यभाव है ।
इसप्रकार यह सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न हैं ।

सम्यक्त्व के आठ गुण हैं - संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा । यह सब प्रशमादि चार में ही आ जाते हैं । संवेग में निर्वेद, वात्सल्य और भक्ति - ये आ गये तथा प्रशम में निंदा, गर्हा आ गई ।

सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहे हैं, उन्हें लक्षण भी कहते हैं और गुण भी । उनके नाम हैं - नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ।

वहाँ शंका नाम संशय का भी है और भय का भी । वहाँ धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालाणुद्रव्य, परमाणु इत्यादि तो सूक्ष्मवस्तु हैं तथा द्वीप, समुद्र, मेरुपर्वत आदि दूरवर्ती पदार्थ हैं तथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि अन्तरित पदार्थ हैं; वे सर्वज्ञ के आगम में जैसे कहे हैं, वैसे हैं या नहीं हैं ? अथवा सर्वज्ञदेव ने वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक कहा है सो सत्य है या असत्य ? - ऐसे सन्देह को शंका कहते हैं । जिसके यह न हो उसे नि:शंकित अंग कहते हैं तथा यह जो शंका होती है सो मिथ्यात्वकर्म के उदय से (उदय में युक्त होने से) होती है; पर में आत्मबुद्धि होना उसका कार्य है । जो पर में आत्मबुद्धि है, सो पर्यायबुद्धि है और पर्यायबुद्धि भय भी उत्पन्न करती है ।

शंका भय को भी कहते हैं, उसके सात भेद हैं - इस लोक का भय, परलोक का भय, मृत्यु का भय, अरक्षा का भय, अगुप्ति का भय, वेदना का भय, अकस्मात्‌ का भय । जिसके यह भय हों, उसे मिथ्यात्व कर्म का उदय समझना चाहिए; सम्यग्दृष्टि होने पर यह नहीं होते ।

प्रश्न – भयप्रकृति का उदय तो आठवें गुणस्थान तक है; उसके निमित्त से सम्यग्दृष्टि को भय होता ही है, फिर भय का अभाव कैसा ?

समाधान –
  • कि यद्यपि सम्यग्दृष्टि के चारित्रमोह के भेदरूप भयप्रकृति के उदय से भय होता है, तथापि उसे निर्भय ही कहते हैं; क्योंकि उसके कर्म के उदय का स्वामित्व नहीं है और परद्रव्य के कारण अपने द्रव्यस्वभाव का नाश नहीं मानता । पर्याय का स्वभाव विनाशीक मानता है, इसलिए भय होने पर भी उसे निर्भय ही कहते हैं । भय होने पर उसका उपचार भागना (पलायन) इत्यादि करता है; वहाँ वर्तमान की पीड़ा सहन न होने से वह इलाज (उपचार) करता है, वह निर्बलता का दोष है । इसप्रकार सम्यग्दृष्टि के संदेह तथा भयरहित होने से नि:शंकित अंग होताहै ॥१॥

  • कांक्षा अर्थात्‌ भोगों की इच्छा-अभिलाषा । वहाँ पूर्वकाल में किये भोगों की वांछा तथा उन भोगों की मुख्य क्रिया में वांछा तथा कर्म और कर्म के फल की वांछा तथा मिथ्यादृष्टियों के भोगों की प्राप्ति देखकर उन्हें अपने मन में भला जानना अथवा जो इन्द्रियों को न रुचे ऐसे विषयों में उद्वेग होना - यह भोगाभिलाष के चिह्न हैं । यह भोगाभिलाष मिथ्यात्वकर्म के उदय से होता है और जिसके यह न हो, वह नि:कांक्षित अंगयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है । वह सम्यग्दृष्टि यद्यपि शुभक्रिया-व्रतादिक आचरण करता है और उसका फल शुभकर्मबन्ध है, किन्तु उसकी वह वांछा नहीं करता । व्रतादिक को स्वरूप का साधक जानकर उनका आचरण करता है कर्म के फल की वांछा नहीं करता - ऐसा नि:कांक्षित अंग है ॥२॥

  • अपने में अपने गुण की महत्त की बुद्धि से अपने को श्रेष्ठ मानकर पर में हीनता की बुद्धि हो, उसे विचिकित्सा कहते हैं; वह जिसके न हो सो निर्विचिकित्सा अंगयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है । उसके चिह्न ऐसे हैं कि यदि कोई पुरुष पाप के उदय से दु:खी हो, असाता के उदय से ग्लानियुक्त शरीर हो तो उसमें ग्लानिबुद्धि नहीं करता । ऐसी बुद्धि नहीं करता कि मैं सम्पदावान हूँ, सुन्दर शरीरवान हूँ, यह दीन, रंक मेरी बराबरी नहीं कर सकता । उलटा ऐसा विचार करता है कि प्राणियों के कर्मोदय से अनेक विचित्र अवस्थाएँ होती हैं; जब मेरे ऐसे कर्म का उदय आवे, तब मैं भी ऐसा ही हो जाऊँ - ऐसे विचार से निर्विचिकित्सा अंग होता है ॥३॥

  • अतत्त्व में तत्त्वपने का श्रद्धान सो मूढदृष्टि है । ऐसी मूढदृष्टि जिसके न हो सो अमूढदृष्टि है । मिथ्यादृष्टियों द्वारा मिथ्या हेतु एवं मिथ्या दृष्टान्त से साधित पदार्थ हैं, वह सम्यग्दृष्टि को प्रीति उत्पन्न नहीं कराते हैं तथा लौकिक रूढि अनेक प्रकार की हैं, वह नि:सार हैं, नि:सार पुरुषों द्वारा ही उसका आचरण होता है, जो अनिष्ट फल देनेवाली है तथा जो निष्फल है; जिनका बुरा फल है तथा उनका कुछ हेतु नहीं है, कुछ अर्थ नहीं है; जो कुछ लोकरूढि चल पड़ती है, उसे लोग अपना मान लेते हैं और फिर उसे छोड़ना कठिन हो जाता है इत्यादि लोकरूढि है ।

    अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि इत्यादि देवादिक मूढता है, वह कल्याणकारी नहीं है । सदोष देव को देव मानना तथा उनके निमित्त हिंसादि द्वारा अधर्म को धर्म मानना तथा मिथ्या आचारवान्‌, शल्यवान्‌, परिग्रहवान्‌ सम्यक्त्वव्रतरहित को गुरु मानना इत्यादि मूढदृष्टि के चिह्न हैं । अब, देव-गुरु-धर्म कैसे होते हैं, उनका स्वरूप जानना चाहिए, सो कहते हैं -

    रागादिक दोष और ज्ञानावरणादिक कर्म ही आवरण हैं; यह दोनों जिसके नहीं हैं, वह देव है । उसके केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य - ऐसे अनंतचतुष्टय होते हैं । सामान्यरूप से तो देव एक ही है और विशेषरूप से अरहंत, सिद्ध ऐसे दो भेद हैं तथा इनके नामभेद के भेद से भेद करें तो हजारों नाम हैं तथा गुणभेद किए जायें तो अनन्त गुण हैं । परमौदारिक देह में विद्यमान घातियाकर्मरहित अनन्तचतुष्टयसहित धर्म का उपदेश करनेवाले ऐसे तो अरिहंतदेव हैं तथा पुद्‌गलमयी देह से रहित लोक के शिखर पर विराजमान सम्यक्त्वादि अष्टगुणमंडित अष्टकर्मरहित ऐसे सिद्ध देव हैं । इनके अनेकों नाम हैं - अरहंत, जिन, सिद्ध, परमात्मा, महादेव, शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, हरि, बुद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग परमात्मा इत्यादि अर्थ सहित अनेक नाम हैं - ऐसा देव का स्वरूप जानना ।

    गुरु का भी अर्थ से विचार करें तो अरिहंत देव ही हैं, क्योंकि मोक्षमार्ग का उपदेश करनेवाले अरिहंत ही हैं, वे ही साक्षात्‌ मोक्षमार्ग का प्रवर्तन कराते हैं तथा अरिहंत के पश्चात्‌ छद्मस्थ ज्ञान के धारक उन्हीं का निर्ग्रन्थ दिगम्बर रूप धारण करनेवाले मुनि हैं सो गुरु हैं; क्योंकि अरिहंत की सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकदेश शुद्धता उनके पायी जाती है और वे ही संवर-निर्जरा-मोक्ष का कारण हैं, इसलिए अरिहंत की भाँति एकदेशरूप से निर्दोष हैं, वे मुनि भी गुरु हैं, मोक्षमार्ग का उपदेश करनेवाले हैं ।

    ऐसा मुनिपना सामान्यरूप से एक प्रकार का है और विशेषरूप से वही तीन प्रकार का है - आचार्य, उपाध्याय, साधु । इसप्रकार यह पदवी की विशेषता होने पर भी उनके मुनिपने की क्रिया समान ही है; बाह्य लिंग भी समान है, पञ्च महाव्रत, पञ्च समिति, तीन गुप्ति - ऐसे तेरह प्रकार का चारित्र भी समान ही है, तप भी शक्ति अनुसार समान ही है, साम्यभाव भी समान है, मूलगुण उत्तरगुण भी समान है, परिषह उपसर्गों का सहना भी समान है, आहारादि की विधि भी समान है, चर्या, स्थान, आसनादि भी समान हैं, मोक्षमार्ग की साधना, सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र भी समान हैं । ध्याता, ध्यान, ध्येयपना भी समान है, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयपना भी समान है, चार आराधना की आराधना, क्रोधादिक कषायों का जीतना इत्यादि मुनियों की प्रवृत्ति है, वह सब समान है ।

    विशेष यह है कि जो आचार्य हैं, वे पञ्चचार अन्य को ग्रहण कराते हैं तथा अन्य को दोष लगे तो उसके प्रायश्चित्त की विधि बतलाते हैं, धर्मोपदेश, दीक्षा एवं शिक्षा देते हैं - ऐसे आचार्य गुरुवन्दना करने योग्य हैं ।

    जो उपाध्याय हैं वे वादित्व, वाग्मित्व, कवित्व, गमकत्व - इन चार विद्याओं में प्रवीण होते हैं; उसमें शास्त्र का अभ्यास प्रधान कारण है । जो स्वयं शास्त्र पढते हैं और अन्य को पढाते हैं, ऐसे उपाध्याय गुरु वन्दनयोग्य हैं; उनके अन्य मुनिव्रत, मूलगुण, उत्तरगुण की क्रिया आचार्य के समान ही होती है तथा साधु रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग की साधना करते हैं सो साधु हैं; उनके दीक्षा, शिक्षा और उपदेशादि देने की प्रधानता नहीं है, वे तो अपने स्वरूप की साधना में ही तत्पर होते हैं; जिनागम में जैसी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि की प्रवृत्ति कही है, वैसी सभी प्रवृत्ति उनके होती है - ऐसे साधु वन्दना के योग्य हैं । अन्यलिंगी-वेषी व्रतादिक से रहित परिग्रहवान, विषयों में आसक्त गुरु नाम धारण करते हैं, वे वन्दनयोग्य नहीं हैं ।

    इस पंचमकाल में जिनतमत में भी भेषी हुए हैं । वे श्वेताम्बर, यापनीयसंघ, गोपुच्छपिच्छसंघ, नि:पिच्छसंघ, द्राविड़संघ आदि अनेक हुए हैं; यह सब वन्दनयोग्य नहीं हैं । मूलसंघ, नग्नदिगम्बर, अट्ठाईस मूलगुणों के धारक, दया के और शौच के उपकरण मयूरपिच्छक, कमण्डल धारण करनेवाले, यथोक्त विधि से आहार करनेवाले गुरु वन्दनयोग्य हैं, क्योंकि जब तीर्थंकर देव दीक्षा लेते हैं, तब ऐसा ही रूप धारण करते हैं, अन्य भेष धारण नहीं करते; इसी को जिनदर्शन कहतेहैं ।

    धर्म उसे कहते हैं जो जीव को संसार के दु:खरूप नीच पद से मोक्ष के सुखरूप उच्च पद में स्थापित करे - ऐसा धर्म मुनि-श्रावक के भेद से, दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक एकदेश सर्वदेशरूप निश्चय-व्यवहार द्वारा दो प्रकार कहा है; उसका मूल सम्यग्दर्शन है; उसके बिना धर्म की उत्पत्ति नहीं होती । इसप्रकार देव-गुरु-धर्म में तथा लोक में यथार्थ दृष्टि हो और मूढता न हो सो अमूढदृष्टि अंग है ॥४॥

  • अपने आत्मा की शक्ति को बढाना सो उपबृंहण अंग है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को अपने पुरुषार्थ द्वारा बढाना ही उपबृंहण है । उसे उपगूहन भी कहते हैं - ऐसा अर्थ जानना चाहिए कि जिनमार्ग स्वयंसिद्ध है; उसमें बालक के तथा असमर्थ जन के आश्रय से जो न्यूनता हो, उसे अपनी बुद्धि से गुप्त कर दूर ही करे, वह उपगूहन अंग है ॥५॥

  • जो धर्म से च्युत होता हो उसे दृढ करना सो स्थितिकरण अंग है । स्वयं कर्मोदय के वश होकर कदाचित्‌ श्रद्धान से तथा क्रिया-आचार से च्युत होता हो तो अपने को पुरुषार्थपूर्वक पुन: श्रद्धान में दृढ करे; उसीप्रकार अन्य कोई धर्मात्मा धर्म से च्युत होता हो तो उसे उपदेशादिक द्वारा धर्म में स्थापित करे, वह स्थितिकरण अंग है ॥६॥

  • अरिहंत, सिद्ध, उनके बिम्ब, चैत्यालय चतुर्विध संघ और शास्त्र में दासत्व हो - जैसे स्वामी का भृत्य दास होता है तदनुसार वह वात्सल्य अंग है । धर्म के स्थान पर उपसर्गादि आयें उन्हें अपनी शक्ति अनुसार दूर करे, अपनी शक्ति को न छिपाये - यह सब धर्म में अति प्रीति हो तब होता है ॥७॥

  • धर्म का उद्योत करना सो प्रभावना अंग है । रत्नत्रय द्वारा अपने आत्मा का उद्योत करना तथा दान, तप, पूजा-विधान द्वारा एवं विद्या, अतिशय-चमत्कारादि द्वारा जिनधर्म का उद्योत करना वह प्रभावना अंग है ॥८


इसप्रकार यह सम्यक्त्व के आठ अंग हैं; जिसके यह प्रगट हों उसके सम्यक्त्व है - ऐसा जानना चाहिए ।

प्रश्न – यदि यह सम्यक्त्व के चिह्न मिथ्यादृष्टि के भी दिखाई दें तो सम्यक्‌-मिथ्या का विभाग कैसे होगा ?

समाधान –
जैसे चिह्न सम्यक्त्वी के होते हैं, वैसे मिथ्यात्वी के तो कदापि नहीं होते, तथापि अपरीक्षक को समान दिखाई दें तो परीक्षा करके भेद जाना जा सकता है । परीक्षा में अपना स्वानुभव प्रधान है । सर्वज्ञ के आगम में जैसा आत्मा का अनुभव होना कहा है, वैसा स्वयं को हो तो उसके होने से अपनी वचन-काय की प्रवृत्ति भी तदनुसार होती है, उस प्रवृत्ति के अनुसार अन्य की भी वचन-काय की प्रवृत्ति पहचानी जाती है - इसप्रकार परीक्षा करने से विभाग होते हैं तथा यह व्यवहार मार्ग है, इसलिए व्यवहारी छद्मस्थ जीवों के अपने ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति है; यथार्थ सर्वज्ञदेव जानते हैं ।

व्यवहारी को सर्वज्ञदेव ने व्यवहार का ही आश्रय बतलाया है* । यह अन्तरंग सम्यक्त्वभावरूप सम्यक्त्व है, वही सम्यग्दर्शन है, बाह्यदर्शन, व्रत, समिति, गुप्तिरूप चारित्र और तपसहित अट्ठाईस मूलगुण सहित नग्न दिगम्बर मुद्रा उसकी मूर्ति है, उसे जिनदर्शन कहते हैं । इसप्रकार धर्म का मूल सम्यग्दर्शन जानकर जो सम्यग्दर्शनरहित हैं, उनके वंदन-पूजन का निषेध किया है - ऐसा यह उपदेश भव्यजीवों को अंगीकार करनेयोग्य है ॥२॥