सम्मत्तविरहिया णं सुठ्ठू वि उग्गं तवं चरंता णं
ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥5॥
सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्ठु अपि उग्रं तप: चरन्तो णं ।
न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभि: ॥५॥
यद्यपि करें वे उग्रतप शत-सहस-कोटि वर्ष तक ।
पर रत्नत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व विरहित साधु सब ॥५॥
अन्वयार्थ : [सम्मत्त] सम्यक्त्व से [विरहिया] रहित [सुट्ठु] सुष्ठु [वि] भी [वास सहस्स कोडीहिं] हजार करोड़ वर्ष तक [उग्गं] उग्र [तवंचरंता] तप का आचरण करने [अवि] भी पर भी [बोहि] बोधि [लाहं] लाभ [लहंहि] की प्राप्ति [ण] नहीं हैं ।
जचंदछाबडा
जचंदछाबडा :
सम्यक्त्व के बिना हजार कोटि वर्ष तप करने पर भी मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं होती । यहाँ हजार कोटि कहने का तात्पर्य उतने ही वर्ष नहीं समझना, किन्तु काल का बहुतपना बतलाया है । तप मनुष्य पर्याय में ही होता है, और मनुष्यकाल भी थोड़ा है, इसलिए तप के तात्पर्य से यह वर्ष भी बहुत कम कहे हैं ॥५॥
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