सम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे
कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण ॥6॥
सम्यक्त्वज्ञानदर्शनबलवीर्यवर्द्धमाना: ये सर्वे ।
कलिकलुषपापरहिता: वरज्ञानिन: भवन्ति अचिरेण ॥६॥
सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान बल अर वीर्य से वर्धमान जो ।
वे शीघ्र ही सर्वज्ञ हों, कलिकलुसकल्मस रहित जो ॥६॥
अन्वयार्थ : [सम्मत्त] सम्यक्त्व [णाण] ज्ञान, [दंसण] दर्शन, [वीरिय] वीर्य से [वड्ढमाण] वर्द्धमान हैं तथा [कलिकलुस] पंचम काल की कलुषता और [पाव] पाप से [रहिया] रहित हैं, [जे सव्वे] वे सभी [अइरेण] अल्पकाल में [वरणाणी] उत्कृष्ट ज्ञानी [होंति] होते हैं ।
जचंदछाबडा
जचंदछाबडा :
इस पंचमकाल में जड़-वक्र जीवों के निमित्त से यथार्थ मार्ग अपभ्रंश हुआ है । उसकी वासना से जो जीव रहित हुए वे यथार्थ जिनमार्ग के श्रद्धानरूप सम्यक्त्वसहित ज्ञान-दर्शन के अपने पराक्रम-बल को न छिपाकर तथा अपने वीर्य अर्थात् शक्ति से वर्द्धमान होते हुए प्रवर्तते हैं, वे अल्पकाल में ही केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥६॥
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