+ सम्यक्त्व आत्मा को कर्मरज नहीं लगने देता -
सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्ठए जस्स
कम्मं वालुयवरणं बन्धुच्चिय णासए तस्स ॥7॥
सम्यक्त्वसलिलप्रवाह: नित्यं हृदये प्रवर्त्तते यस्य ।
कर्म वालुकावरणं वद्धमपि नश्यति तस्य ॥७॥
सम्यक्त्व की जलधार जिनके नित्य बहती हृदय में ।
वे कर्मरज से ना बंधे पहले बंधे भी नष्ट हों ॥७॥
अन्वयार्थ : [जस्स] जिसके [हियए] हृदय में [सम्मत्त] सम्यक्त्वरूपी [सलिल] जल का [पवहो] प्रवाह [णिच्चं] निरंतर [पवट्टए] प्रवर्त्तमान है, [तस्स] उसके [कम्मं] कर्मरूपी [वालुयवरणं] धूल का आवरण नहीं लगता तथा पूर्वकाल में जो [बंधुच्चिय] कर्मबंध हुआ हो वह भी [णासए] नाश को प्राप्त होता है ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

सम्यक्त्व-सहित पुरुष को (निरन्तर ज्ञानचेतना के स्वामित्वरूप परिणमन है इसलिए) कर्म के उदय से हुए रागादिक भावों का स्वामित्व नहीं होता, इसलिए कषायों की तीव्र कलुषता से रहित परिणाम उज्ज्वल होते हैं; उसे जल की उपमा है । जैसे - जहाँ निरन्तर जल का प्रवाह बहता है, वहाँ बालू-रेत-रज नहीं लगती; वैसे ही सम्यक्त्वी जीव कर्म के उदय को भोगता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता तथा बाह्य व्यवहार की अपेक्षा से ऐसा भी तात्पर्य जानना चाहिए कि जिसके हृदय में निरन्तर सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह बहता है, वह सम्यक्त्वी पुरुष इस कलिकाल सम्बन्धी वासना अर्थात्‌ कुदेव-कुशास्त्र-कुगुरु को नमस्कारादिरूप अतिचाररूप रज भी नहीं लगाता तथा उसके मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियों का आगामी बंध भी नहीं होता ॥७॥