+ दर्शन-भ्रष्ट द्वारा धर्मात्मा पुरुषों को दोष लगाना -
जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोगगुणधारी
तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गत्तणं दिति ॥9॥
य: कोऽपि धर्मशील: संयमतपोनियमयोगगुणधारी ।
तस्य च दोषान्‌ कथयन्‍त: भग्ना भग्नत्वं ददति ॥९॥
तप शील संयम व्रत नियम अर योग गुण से युक्त हों ।
फिर भी उन्हें वे दोष दें जो स्वयं दर्शन भ्रष्ट हों ॥९॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [किवि] किसी भी, [धम्मोसीलो] धर्मशील-धर्म के अभ्यासियों, [संजम] संयम [तव] तप, [णियम] नियम [जोय] योग [च] और [गुणधारी] गुणों से युक्त महापुरषों में मिथ्या [दोस] दोषरोपण [कहंता] करते है [तस्स] वे स्वयं तो चरित्र से [भग्गा] पतित है [भग्गत्तणं] दूसरों को भी पतित [दिंति] कर देते है ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

जो पुरुष धर्मशील अर्थात्‌ अपने स्वरूपरूप धर्म को साधने का जिसका स्वभाव है तथा संयम अर्थात्‌ इन्द्रिय-मन का निग्रह और षट्‌काय के जीवों की रक्षा, तप अर्थात्‌ बाह्याभ्यंतर भेद की अपेक्षा से बारह प्रकार के तप, नियम अर्थात्‌ आवश्यकादि नित्यकर्म, योग अर्थात्‌ समाधि, ध्यान तथा वर्षाकाल आदि कालयोग, गुण अर्थात्‌ मूलगुण, उत्तरगुण - इनका धारण करनेवाला है, उसे कई मतभ्रष्ट जीव दोषों का आरोपण करके कहते हैं कि यह भ्रष्ट है, दोषयुक्त है, वे पापात्मा जीव स्वयं भ्रष्ट हैं, इसलिए अपने अभिमान की पुष्टि के लिए अन्य धर्मात्मा पुरुषों को भ्रष्टपना देते हैं ।

पापियों का ऐसा ही स्वभाव होता है कि स्वयं पापी हैं, उसीप्रकार धर्मात्मा में दोष बतलाकर अपने समान बनाना चाहते हैं । ऐसे पापियों की संगति नहीं करना चाहिए ॥९॥