+ दर्शन-भ्रष्ट को फल-प्राप्ति नहीं -
जह मूलम्मि विणट्ठे दुमस्स परिवार णत्थि परवड्‌ढी
तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झंति ॥10॥
यथा मूले विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धि: ।
तथा जिनदर्शनभ्रष्टा: मूलविनष्टा: न सिद्धयन्ति ॥१०॥
जिस तरह द्रुम परिवार की वृद्धि न हो जड़ के बिना ।
बस उस तरह ना मुक्ति हो जिनमार्ग में दर्शन बिना ॥१०॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [मूलम्मि] जड़ के [विणट्ठे] नष्ट होने से [दुमस्स] वृक्ष के [परिवार] परिवार की [परिवड्ढी] अभीवृद्धि [णत्थी] नही होती [तह] उसी प्रकार [जिण] जिन [दंसण] दर्शन अर्थात अरिहंत भगवान के मत से [भट्ठा] भृष्ट, [मूलविणट्ठा] मूल से विनष्ट है / जड़ से रहित है उन की [सिज्झंति] सिद्धि [ण] नही होती अर्थात मोक्ष नही प्राप्त होता ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

जिसप्रकार वृक्ष का मूल विनष्ट होने पर उसके परिवार अर्थात्‌ स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फल की वृद्धि नहीं होती, उसीप्रकार जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं, बाह्य में तो नग्न-दिगम्बर यथाजातरूप निर्ग्रन्थ लिंग, मूलगुण का धारण, मयूर पिच्छिका (मोर के पंखों की पींछी) तथा कमण्डल धारण करना, यथाविधि दोष टालकर खड़े-खड़े शुद्ध आहार लेना - इत्यादि बाह्य शुद्ध वेष धारण करते हैं तथा अन्तरंग में जीवादि छह द्रव्य, नवपदार्थ, सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान एवं भेदविज्ञान से आत्मस्वरूप का अनुभवन - ऐसे दर्शन-मत से बाह्य हैं, वे मूलविनष्ट हैं, उनके सिद्धि नहीं होती, वे मोक्षफल को प्राप्त नहीं करते ।