+ जिनदर्शन ही मूल मोक्षमार्ग है -
जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होइ
तह जिणदंसण मूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स ॥11॥
यथा मूलात्‌ स्कन्‍ध: शाखापरिवार: बहुगुण: भवति ।
तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य ॥११॥
मूल ही है मूल ज्यों शाखादि द्रुम परिवार का ।
बस उस तरह ही मुक्तिमग का मूल दर्शन को कहा ॥११॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [मूलाओ] जड़ से [खंधो] वृक्ष का स्कंध और [साहा] शाखाओं का [परिवार] परिवार [बहुगुणों] वृद्धि आदि अनेक गुणों से युक्त [होई] होता है [तह] वैसे ही [जिणदंसण] जिनदर्शन अथवा जिनेन्द्रदेव का प्रगाढ़ श्रद्धान [मोक्ख] मोक्ष [मग्गस्स] मार्ग का [मूलो] मूल कारण [णिद्दिट्ठो] कहा है ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

जिसप्रकार वृक्ष के मूल से स्कंध होते हैं; कैसे स्कंध होते हैं कि जिनके शाखा आदि परिवार बहुत गुण हैं । यहाँ गुण शब्द बहुत का वाचक है; उसीप्रकार गणधर देवादिक ने जिनदर्शन को मोक्षमार्ग का मूल कहा है ।

यहाँ जिनदर्शन अर्थात्‌ तीर्थंकर परमदेव ने जो दर्शन ग्रहण किया उसी का उपदेश दिया है, वह मूलसंघ है; वह अट्ठाईस मूलगुण सहित कहा है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, छह आवश्यक, पाँच इन्द्रियों को वश में करना, स्नान नहीं करना, भूमिशयन, वस्त्रादिक का त्याग अर्थात्‌ दिगम्बर मुद्रा, केशलोंच करना, एकबार भोजन करना, खड़े-खड़े आहार लेना, दंतधावन न करना - यह अट्ठाईस मूलगुण हैं तथा छियालीस दोष टालकर आहार करना, वह एषणा समिति में आ गया ।

ईर्यापथ - देखकर चलना वह ईर्या समिति में आ गया तथा दया का उपकरण मोरपुच्छ की पींछी और शौच का उपकरण कमण्डल धारण करना - ऐसा बाह्य भेष है तथा अन्तरंग में जीवादिक षट्‌द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्त्व, नव पदार्थों को यथोक्त जानकर श्रद्धान करना और भेदविज्ञान द्वारा अपने आत्मस्वरूप का चिंतवन करना, अनुभव करना ऐसा दर्शन अर्थात्‌ मत वह मूलसंघ का है । ऐसा जिनदर्शन है, वह मोक्षमार्ग का मूल है; इस मूल से मोक्षमार्ग की सर्व प्रवृत्ति सफल होती है तथा जो इससे भ्रष्ट हुए हैं, वे इस पंचमकाल के दोष से जैनाभास हुए हैं, वे श्वेताम्बर, द्राविड़, यापनीय, गोपुच्छ-पिच्छ, नि:पिच्छ - पाँच संघ हुए हैं; उन्होंने सूत्र सिद्धान्त अपभ्रंश किये हैं । जिन्होंने बाह्य वेष को बदलकर आचरण को बिगाड़ा है, वे जिनमत के मूलसंघ से भ्रष्ट हैं, उनको मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं है । मोक्षमार्ग की प्राप्ति मूलसंघ के श्रद्धान-ज्ञान-आचरण ही से है - ऐसा नियम जानना ॥११॥