+ कल्याण-अकल्याण को जानने का प्रयोजन -
सेयासेयविदण्हू उद्‌धुददुस्सील सीलवंतो वि
सीलफलेणब्भुदयं तत्ते पुण लहइ णिव्वाणं ॥16॥
श्रेयोऽश्रेयवेत्त उद्‌धृतदु:शील: शीलवानपि ।
शीलफलेनाभ्युदयं तत: पुन: लभते निर्वाणम्‌ ॥१६॥
श्रेयाश्रेय के परिज्ञान से दु:शील का परित्याग हो ।
अर शील से हो अभ्युदय अर अन्त में निर्वाण हो ॥१६॥
अन्वयार्थ : [सेयासेय] कल्याण और अकल्याण को [विदण्हू] जानने-वाला मनुष्य [दुस्सील] दुःशील / दुष्ट-स्वभाव को [उद्धुद] उन्मूलित कर लेता है तथा [सीलवंतोवि] उत्तमशील/श्रेष्ठ स्वभाव युक्त होता है, [सीलफलेण] शील के फलस्वरूप वह [अब्भुदयं] सांसारिक सुख प्राप्तकर [तत्तो पुण] फिर [णिव्वाणं] मोक्ष [लहइ] प्राप्त करता है ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

भले-बुरे मार्ग को जानता है, तब अनादि संसार से लगाकर, जो मिथ्या-भाव-रूप प्रकृति है, वह पलटकर सम्यक्‌-स्वभाव-स्वरूप प्रकृति होती है; उस प्रकृति से विशिष्ट पुण्यबंध करे तब अभ्युदयरूप तीर्थंकरादि की पदवी प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है ॥१६॥