एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥21॥
एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन ।
सारं गुणरत्नत्रये सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥२१॥
जिनवरकथित सम्यक्त्व यह गुण रतनत्रय में सार है ।
सद्भाव से धारण करो यह मोक्ष का सोपान है ॥२१॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [जिणपण्णत्तं] जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत [दंसण रयणं] सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को [भावेण] भावपूर्वक [धरेह] धारण करो ! यह [गुणरयणत्तय] क्षमादि गुणों और रत्नत्रय में [सारं] श्रेष्टत्तम है क्योकि [मोक्खस्स] मोक्ष की [पढम] प्रथम [सोवाणं] सीढ़ी है ।
जचंदछाबडा