जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं
केवलिजिणेहिं भणियं सद्दमाणस्स सम्मत्तं ॥22॥
यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य चश्रद्धानम् ।
केवलिजिनै: भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥२२॥
जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें ।
श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें ॥२२॥
अन्वयार्थ : [जं] जो कार्य [सक्कइ] किया जा सकता है [तं] वह [कीरइ] करे [च] और [जं ण] जो नही [सक्केइ] कर सकते [तं] उसका [सद्दहणं] श्रद्धान करे । [केवलि] केवलि, [जिणेहिं] जिनेन्द्र भगवान ने [भणियं] कहा है कि [सद्दमाणस्स] श्रद्धान करने वाला [सम्मतं] सम्यक्त्व से युक्त, सम्यग्दृष्टि है ।
जचंदछाबडा
जचंदछाबडा :
यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि सम्यक्त्व होने के बाद में तो सब परद्रव्य-संसार को हेय जानते हैं । जिसको हेय जाने उसको छोड़ मुनि बनकर चारित्र का पालन करे तब सम्यक्त्वी माना जावे, इसके समाधानरूप यह गाथा है, जिसने सब परद्रव्य को हेय जानकर निजस्वरूप को उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु जबतक (चारित्र में प्रबल दोष है तबतक) चारित्र-मोहकर्म का उदय प्रबल होता है (और) तबतक चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती ।
जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेष का श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करने को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ॥२२॥
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