+ सम्यग्दर्शनरूप रत्न देवों द्वारा पूज्य -
कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं
सम्मद्दंसणरयणं अग्घेदि सुरासुरे लोए ॥33॥
कल्याणपरम्‍परया लभन्‍ते जीवा: विशुद्धसम्यक्त्वम्‌ ।
सम्यग्दर्शनरत्नं अर्घ्यते सुरासुरे लोके ॥३३॥
समकित रतन है पूज्यतम सब ही सुरासुर लोक में ।
क्योंकि समकित शुद्ध से कल्याण होता जीव का ॥३३॥
अन्वयार्थ : [जीवा] जीव, [कल्लाण] कल्याणों के [परंपरया] समूह (पँचकल्याण को) को [विसुद्ध] विशुद्ध (निर्दोष) [सम्मतं] सम्यक्त्व से [लहंति] प्राप्त करते है, [सम्मदंसणरयणं] सम्यग्दर्शन रूप रत्न [अग्घेदि] पूजा जाता है [सुरासुरे] देवों, दानवों (सहित) [लोए] समस्त लोक द्वारा ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

विशुद्ध अर्थात्‌ पच्चीस मलदोषों से रहित निरतिचार सम्यक्त्व से कल्याण की परम्परा अर्थात्‌ तीर्थंकर पद पाते हैं, इसलिए यह सम्यक्त्व रत्न लोक में सब देव, दानवों और मनुष्यों से पूज्य होता है । तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारण सोलह-कारण भावना कही हैं, उनमें पहली दर्शन-विशुद्धि है, वही प्रधान है, यही विनयादिक पंद्रह भावनाओं का कारण है, इसलिए सम्यग्दर्शन के ही प्रधानपना है ॥३३॥