+ स्थावर प्रतिमा -
विहरदि जाव जिणिंदो सहसट्ठसुलक्खणेहिं संजुत्ते
चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ॥35॥
विहरति यावत्‌ जिनेन्द्र: सहस्राष्टलक्षणै: संयुक्त: ।
चतुस्त्रिंशदतिशययुत: सा प्रतिमा स्थावरा भणिता ॥३५॥
हजार अठ लक्षण सहित चौंतीस अतिशय युक्त जिन ।
विहरें जगत में लोकहित प्रतिमा उसे थावर कहें ॥३५॥
अन्वयार्थ : [सहसट्ठ] एक हज़ार आठ [सुलक्खणेहिं] शुभ लक्षणों और [चउतीस] ३४ [अइसय] अतिशयों [संजुत्तो] से युक्त [जिणिंदो] जिनेन्द्र भगवान् जब तक यहाँ [विहरदि] विहार करते है [जाव] तब तक [सा] उन्हें [थावरा] स्थावर [पडिमा] प्रतिमा [भणिया] कहा गया है ।

  जचंदछाबडा 

जचंदछाबडा :

चौतीस अतिशयों में दस तो जन्म से ही लिये हुए उत्पन्न होते हैं - १. निस्वेदता, २.निर्मलता, ३. श्वेतरुधिरता, ४. समचतुरस्रसंस्थान, ५. वज्रवृषभनाराचसंहनन, ६. सुरूपता, ७. सुगंधता, ८. सुलक्षणता, ९. अतुलवीर्य, १०. हितमितवचन - ऐसे दस होते हैं ।

घातिया कर्मों के क्षय होने पर दस होते हैं - १. शतयोजन सुभिक्षता, २. आकाशगमन, ३. प्राणिवध का अभाव, ४. कवलाहार का अभाव, ५. उपसर्ग का अभाव, ६. चतुर्मुखपना, ७. सर्वविद्याप्रभुत्व, ८. छायारहितत्व, ९. लोचन स्पंदनरहितत्व, १०. केश-नख वृद्धि-रहितत्व - ऐसे दस होते हैं ।

देवों द्वारा किये हुए चौदह होते हैं - १. सकलार्द्धमागधी भाषा, २. सर्वजीव मैत्रीभाव, ३. सर्वऋतु-फलपुष्पप्रादुर्भाव, ४. दर्पण के समान पृथ्वी का होना, ५. मंद सुगंध पवन का चलना, ६. सारे संसार में आनन्द का होना, ७. भूमिकंटकादिरहित होना, ८. देवों द्वारा गंधोदक की वर्षा होना, ९. विहार के समय चरणकमल के नीचे देवों द्वारा सुवर्णमयी कमलों की रचना होना, १०. भूमि धान्यनिष्पत्ति सहित होना, ११. दिशा आकाश निर्मल होना, १२. देवों का आह्वानन शब्द होना, १३. धर्मचक्र का आगे चलना, १४. अष्ट मंगल द्रव्य होना - ऐसे चौदह होते हैं । सब मिलाकर चौंतीस हो गये ।

आठ प्रातिहार्य होते हैं, उनके नाम - १. अशोकवृक्ष, २. पुष्पवृष्टि, ३. दिव्यध्वनि, ४.चामर, ५. सिंहासन, ६. छत्र, ७. भामंडल, ८. दुन्दुभिवादित्र - ऐसे आठ होते हैं ।

ऐसे अतिशयसहित अनन्तज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य सहित तीर्थंकर परमदेव जबतक जीवों के सम्बोधन निमित्त विहार करते विराजते हैं, तबतक स्थावर प्रतिमा कहलाते हैं ।

स्थावर प्रतिमा कहने से तीर्थंकर के केवलज्ञान होने के बाद में अवस्थान बताया है और धातु पाषाण की प्रतिमा बनाकर स्थापित करते हैं, वह इसी का व्यवहार है ॥३५॥