+ निंदा गर्हा और आलोचना -
णिंदामि णिंदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं
आलोचेमि य सव्वं सब्भंतरबाहिरं उवहिं ॥55॥
अन्वयार्थ : आत्म संस्कार काल से संन्यास काल तक को आलोचना के लिए क्षपक आलोचना करते हैं-जो उपधि और परिग्रह निन्दा करने योग्य हैं उनकी मैं निन्दा करता हूँ, जो गर्हा करने योग्य हैं उनकी गर्हा करता हूँ और समस्त बाह्य अभ्यन्तर उपधि की आलोचना करके अपने से दूर करता हूँ ।