+ इष्टदेव को नमस्कार -
तिहुवण-तिलयं देवं वंदित्ता तिहुवणिंद परिपुज्जं
वोच्छं अणुपेहाओ भविय-जणाणंद-जणणीओ ॥1॥
त्रिभुवनतिलकं देवं वंदित्वा त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्यं ।
वक्ष्ये अनुप्रेक्षाः भविकजनानन्दजननीः ॥१॥
अन्वयार्थ : [तिहवणतिलयं] तीन भुवन का तिलक [तिहवणिंदपरिपुज्‍जं] तीन भुवन के इन्‍द्रों से पूज्‍य (ऐसे) [देवं] देव को मैं अर्थात स्‍वामि कार्तिकेय वंदित्ता नमस्‍कार करके [भवियजणाणंदजणणीओ] भव्‍य जीवों को आनन्‍द उत्‍पन्न करने वाली [अणुपेहाओ] अनुप्रेक्षायें [वोच्‍छं] कहूँगा ।

  छाबडा 

छाबडा :

यहॉं 'देव' ऐसी सामान्‍य संज्ञा है सो क्रीडा, रति, विजिगीषा, द्युति, स्‍तुति, प्रमोद, गति, कान्ति इत्‍यादि क्रियायें करे उसको देव कहते हैं, सो सामान्‍यतया तो चार प्रकार के देव वा कल्पित देव भी गिने जाते हैं, उनसे भिन्‍नता दिखाने के लिये 'तिहुवणतिलयं' ऐसा विशेषण दिया इससे अन्‍य भिन्‍नता दिखाने के लिये 'तिहुअरिंगदपरिपुज्‍जं' ऐसा विशेषण दिया, जिससे तीन भुवन के इन्‍द्रों द्वारा भी पूज्‍य ऐसा जो देव है उसको नमस्‍कार किया । यहाँ इस प्रकार समझना कि उपर कहे अनुसार देवपना अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्‍याय और सर्वसाधु इन पंच-परमेष्ठियों में ही पाया जाता है, क्‍योकि परम स्‍वात्‍म-जनित आनन्‍द सहित क्रीड़ा, तथा कर्म कलंक को जीतनेरूप विजीगीषा, स्‍वात्‍म-जनित प्रकाशरूप द्युति, स्‍वरूप की स्‍तुति, स्‍वरूप में परम-प्रमोद, लोकालोक-व्‍याप्‍तरूप गति, शुद्धस्‍वरूप की प्रवृत्तिरूप कान्ति इत्‍यादि देवपने की उत्‍कृ‍ष्‍ट क्रियायें, सब एकदेश वा सर्वदेशरूप इनमें ही पाई जाती हैं, इसलिये सर्वोत्‍कृष्‍ट देवपना इनमें ही पाया जाता है, अत: इनको मंगलरूप नमस्‍कार करना उचित है । [मं पापं गालयति इति मंगलं अथवा मंगं सुंखं लाति ददाति इति मंगलं] 'मं' कहिये पाप उसको गालै (नाश करे) तथा 'मंगं' कहिये सुख, उसको [लाति ददाति] अर्थात् दे, उसकों मंगल कहते हैं, सो ऐसे देव को नमस्‍कार करने से शुभ-परिणाम होते है जिससे पापों का नाश होता है और शान्‍त-स्‍वभावरूप सुख की प्राप्ति होती है ।

अनुप्रेक्षा का सामान्‍य अर्थ बारम्‍बार चिंतवन करना है, वह चिंतवन अनेक प्रकार का है, उसके करनेवाले अनेक हैं, उनसे भिन्‍नता दिखाने के लिये 'भवियजणाणंदजणणीओ' ऐसा विशेषण दिया है । इसलिये मैं (स्‍वामिकार्तिकेय) जिन भव्‍यजीवों के मोक्ष होना निकट आया हो उनकों आनन्‍द उत्‍पन्‍न करनेवाली, ऐसी अनुप्रेक्षा कहूँगा ।

यहॉं 'अणुपेहाओ' ऐसा बहुवचनांत पद है । अनुप्रेक्षा-सामान्‍य चिंतवन एक प्रकार है तो भी अनेक प्रकार है, भव्‍यजीवों को सुनते ही मोक्षमार्ग में उत्‍साह उत्‍पन्‍न हो, ऐसा चितवप संक्षेप से बारह प्रकार है, उनके नाम तथा भावना की प्रेरणा दो गाथाओं में कहते हैं:-