
एवं बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरिय-जोणीसु
तत्तो णीसरदूणं लद्धि-अपुण्णो णरो होदि ॥44॥
अन्वयार्थ : [एवं] ऐसे [तिरियजोणीसु] तिर्यचयोनि में [बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि] अनेक प्रकार के दु:ख सहता है [तत्तो णीसरदूणं] उस तिर्यचगति से निकल कर [लद्धिअपुण्णो णरो होदि] लब्धि-अपर्याप्त मनुष्य होता है ।
छाबडा