सम्मत्तं सण्णाणं, सच्चारित्तं च सत्तवो चेव ।
चउरो चिट्ठदि आदे, तम्हा आदा हु मे सरणं ॥13॥
अन्वयार्थ :
चूँकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप ये चारों भी आत्मा में स्थित हैं इसलिए आत्मा ही मेरा शरण है ॥१३॥