असुहेण णिरयतिरियं, सुहउवजोगेण दिविजणरसोक्‍खं ।
सुद्धेण लहइ सिद्धिं, एवं लोयं विचिंतिज्‍जो ॥42॥
अन्वयार्थ : अशुभोपयोगसे नरक और तिर्यंच गति प्राप्‍त होती है, शुभोपयोग से देव और मनुष्‍यगति का सुख मिलता है और शुद्धोपयोग से जीव मुक्‍ति को प्राप्‍त होता है---इस प्रकार लोक का विचार करना चाहिए ॥४२॥