
णिच्छयणएण जीवो, सागारणगारधम्मदो भिण्णो ।
मज्झत्थभावणाए, सुद्धप्पं चिंतए णिच्चं ॥82॥
अन्वयार्थ : निश्चयनय से जीव गृहस्थधर्म और मुनिधर्म से भिन्न है इसलिए दोनों धर्मों में मध्यस्थ भावना रखते हुए निरंतर शुद्ध आत्मा का चिंतन करना चाहिए ॥८२॥