प्रभाचन्द्राचार्य :
तत्र सद्दर्शनविषयतयोक्तस्याप्तस्य स्वरूपं व्याचिख्यासुराह -- आप्तेन भवितव्यं नियोगेन निश्चयेन नियमेन वा । किं विशिष्टेन ? उत्सन्नदोषेण नष्टदोषेण । तथा सर्वज्ञेन सर्वत्र विषयेऽशेषविशेषत: परिस्फुटपरिज्ञानवता नियोगेन भवितव्यम् । तथा आगमेशिना भव्यजनानां हेयोपादेयतत्त्वप्रतिपत्तिहेतुभूतागमप्रतिपादकेन नियमेन भवितव्यम् । कुत एतदित्याह -- नान्यथा ह्याप्तता भवेत् हि यस्मात् अन्यथा उक्तविपरीतप्रकारेण, आप्तता न भवेत् ॥५॥ |
आदिमति :
जिनके क्षुधा-तृषादि शारीरिक तथा रागद्वेषादिक दोष नष्ट हो गये हैं तथा जो समस्त पदार्थों को उनकी विशेषताओं सहित स्पष्ट जानते हैं तथा जो आगम के ईश हैं अर्थात् जिनकी दिव्यध्वनि सुनकर गणधर द्वादशांगरूप शास्त्र की रचना करते हैं, इस प्रकार जो भव्य जीवों को हेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान कराने वाले आगम के मूलकर्ता हैं वे ही आप्त-सच्चे देव हो सकते हैं, यह निश्चित है, क्योंकि जिनमें ये विशेषताएँ नहीं हैं, वे सच्चे देव नहीं हो सकते । |
सदासुखदास :
जो स्वयं ही दोषों सहित हो वह अन्य जीवों को निराकूल, सुखी, निर्दोष कैसे करेगा ? जो क्षुधा की बाधा, तृषा की बाधा, काम, क्रोधादिक दोषों सहित हो वह तो महादुखी है, उसके ईश्वरपना कैसे होगा ? जो निरन्तर भयवान होकर शस्त्र आदि ग्रहण किये रहे उसके शत्रु विद्यमान हैं, वह निराकुल कैसे होगा ? जिसके द्वेष, चिंता, खेदादि निरंतर रहें वह सुखी नहीं होता । जो कामी, रागी हो वह तो निरंतर अन्य के वश रहता है; उसे स्वाधीनता नहीं हैं; पराधीनता से सच्चा वक्तापना बनता नहीं है । जो मद के वशीभूत हो, निन्दा के वशीभूत हो, उसके सच्चा ज्ञातापना नहीं हो सकता है । जो जन्म-मरण सहित है उसके संसार परिभ्रमण का अभाव नहीं हुआ, संसारी ही है; उसके भी सच्चा आप्तपना नहीं बनता । इसलिये जो निर्दोष हो उसी को सत्यार्थ-पने द्वारा आप्त-पना बनता है । रागी-द्वेषी तो अपना और पर का राग-द्वेष पुष्ट करने-रूप वचन ही कहता है । यथार्थ वक्ता-पना तो वीतरागी को ही सम्भव है । यदि सर्वज्ञ नहीं होते तो इंद्रियों के आधीन ज्ञानवाला पहले हो गए राम, रावण, आदि उन्हें कैसे जानेगा ? दूरवर्ती जो मेरु पर्वत, स्वर्ग, नरक परलोकादि को कैसे जानेगा ? और सूक्ष्म परमाणु इत्यादि को कैसे जानेगा ? इन्द्रियजनित ज्ञान तो स्थूल, विद्यमान, अपने सन्मुख पदार्थों ही को स्पष्ट नहीं जानता है । इस संसार में पदार्थ तो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदि अनन्त हैं और एक ही समय में सभी अपनी भिन्न-मिन्न परिणति-रूप परिणमते हैं । इसलिये एक समयवर्ती अनन्त पदार्थो की भिन्न-मिन्न अनंत ही पर्यायें होती हैं । इंद्रिय-जनित ज्ञान तो क्रमवर्ती स्थूल पुद्गल की अनेक समयों में हुई जो एक रथूल पर्याय है, उसे जानने-वाला है । अनेक पदार्थों की अनेक पर्यायें प्रति-समय हो रही हैं । जो एक समय-वर्ती सभी पर्यायों को हो जानने में समर्थ नहीं है, तो जो अनन्त-काल बीत गया और अनन्त-काल आयेगा, उसकी अनंतानन्त पर्यायों को वह इन्द्रिय-जनित ज्ञान कैसे जान सकेगा ? इसलिये सर्व त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को युगपत् (एक-साथ) जानने में समर्थ ऐसे सर्वज्ञ ही के आप्त-पना सम्भव है; और जो परम हितोपदेशक हो वही आप्त है । ये तीन गुण जिसमें हो वहीँ देव है । यद्यपि अर्हन्तदेव मनुष्य पर्याय को धारण किये मनुष्य हैं, तो भी ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों के नाश से प्रगट हुआ जो अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-वीर्य, अनन्त-सुख-रूप निज स्वभाव, उसमें रमण करने से, कर्मों को जीतने से, अप्रमाण (अतुल) शरीर की कांति प्रगट होने से, अनन्त आनन्द और सुख में मग्न होने से तथा इंद्रादि समस्त देवों द्वारा स्तुति योग्य होने से, अनंत ज्ञान-दर्शन स्वभाव द्वारा समस्त लोकालोक में व्याप्त होने से, अनन्त शक्ति प्रगट होने से अन्य देवों और मनुष्यों से भिन्न असाधारण आत्मा के रूप द्वारा शोभायमान है । इसलिये मनुष्य पर्याय में ही अपने अनन्त-ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख आदि गुणों के प्रगट होने के कारण इन्हें देवाधि-देव कहते हैं । यहाँ कोई प्रश्न करता है - आप्त के तीन लक्षण (गुण) क्यों कहे ? एक निर्दोष कहने से ही उसमें समस्त गुण (लक्षण) आ जाते ? उससे कहते हैं - निर्दोषपना तो पुदगल (परमाणु), धर्म, अधर्म, आकाश और कालादि में भी है । इनके अचेतनपना होने से क्षुधा, तृषा, राग-द्वेषादि भी नहीं है । अत: निर्दोषपना कहने से इनके आप्तपना का प्रसंग आ जाता । आप्त निर्दोष तो होता ही है, सर्वज्ञ भी होता है । यदि निर्दोष और सर्वज्ञ -- ये दो ही आप्त के गुण कहें तो भगवान सिद्धों के भी आप्तपना का प्रसंग आ जाता, तब सच्चे उपदेश का अभाव आ जाता । इसलिये निर्दोष, सर्वज्ञ और परम हितोपदेशकता इन तीन गुणों सहित देवाधिदेव परम औदारिक शरीर में स्थित भगवान सर्वज्ञ वीतराग अरहन्त को ही आप्तपना है, ऐसा निश्चय करना योग्य है । |