प्रभाचन्द्राचार्य :
अथ के पुनस्ते दोषा ये तत्रोत्सन्ना इत्याशङ्क्याह -- क्षुच्च बुभुक्षा । पिपासा च तृषा । जरा च वृद्धत्वम् । आतङ्कश्च व्याधि: । जन्म च कर्मवशाच्चतुर्गतिषूत्पत्ति: । अन्तकश्च मृत्यु: । भयं चेहपरलोकात्राणागुप्तिमरणवेदनाऽऽकस्मिकलक्षणम् । स्मयश्च जातिकुलादिदर्प: रागद्वेषमोहा: प्रसिद्धा: । च शब्दाच्चिन्ताऽरतिनिद्राविस्मयमदस्वेदखेदा गृह्यन्ते । एतेऽष्टादशदोषा यस्य न सन्ति स आप्त: प्रकीर्त्यते प्रतिपाद्यते । ननु चाप्तस्य भवेत् क्षुत्, क्षुदभावे आहारादौ प्रवृत्त्यभावाद्देहस्थितिर्न स्यात् । अस्ति चासौ, तस्मादाहारसिद्धि: । तथाहि भगवतो देहस्थितिराहारपूर्विका, देहस्थितित्वादस्मदादिदेहस्थितिवत् । जैनेनोच्यते -- अत्र किमाहारमात्रं साध्यते कवलाहारो वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाधनता आसयोगकेवलिन आहारिणो जीवा इत्यागमाभ्युपगमात् । दि्वतीयपक्षे तु देवदेहस्थित्याव्यभिचार: । देवानां सर्वदा कवलाहाराभावेऽप्यस्या: सम्भवात् । अथ मानसाहारात्तेषां तत्र स्थितिस्तर्हि केवलिनां कर्मनोकर्माहारात्सास्तु । अथ मनुष्यदेहस्थितित्वादस्मदादिवत्साततपूर्विका इष्यते तर्हि तद्वदेव तद्देहे सर्वदा नि:स्वेदत्वाद्यभाव: स्यात् । अस्मदादावनुपलब्धस्यापि तदतिशयस्य तत्र सम्भवे भुक्त्यभावलक्षणोऽप्यतिशय: किं न स्यात् । किं च अस्मदादौ दृष्टस्य धर्मस्य भगवति सम्प्रसाधने तज्ज्ञानस्येन्द्रियजनितत्वप्रसङ्ग: । तथाहि भगवतो ज्ञानमिन्द्रियजं ज्ञानत्वात् अस्मदादिज्ञानवत् । अतो भगवत: केवलज्ञानलक्षणातीन्द्रियज्ञानासम्भवात् सर्वज्ञत्वाय दत्तो जलाञ्जलि: । ज्ञानत्वाविशेषेऽपि तज्ज्ञानस्यातीन्द्रियत्वे देहस्थितित्वाऽविशेषेऽपि तद्देहस्थितेरकवलाहारपूर्वत्वं किं न स्यात् । वेदनीयसद्भावात्तस्य बुभुक्षोत्पत्तेर्भोजनादौ प्रवृत्तिरित्युक्तिरनुपपन्ना मोहनीयकर्मसहायस्यैव वेदनीयस्य बुभुक्षोत्पादने सामर्थ्यात् । भोक्तुमिच्छा बुभुक्षा सा मोहनीयकर्मकार्यत्वात् कथं प्रक्षीणमोहे भगवति स्यात् ? अन्यथा रिरंसाया अपि तत्र प्रसङ्गात् कमनीयकामिन्यादिसेवाप्रसक्तेरीश्वरादेस्तस्याविशेषाद्वीतरागता न स्यात् । विपक्षभावनावशाद्रागादीनां हान्यतिशयदर्शनात् केवलिनि तत्परमप्रकर्षप्रसिद्धेर्वीतरागतासम्भवे भोजनाभावपरमप्रकर्षोपि तत्र किं न स्यात्, तद्भावनातो भोजनादावपि हान्यतिशयदर्शनाविशेषात् । तथाहि एकस्मिन् दिने योऽनेकवारान् भुङ्क्ते, कदाचित् विपक्षभावनावशात् स एव पुनरेकवारं भुङ्क्ते । कश्चित् पुनरेकदिनाद्यन्तरितभोजन:, अन्य: पुन: पक्षमाससंवत्सराद्यन्तरितभोजन इति । किं च बुभुक्षापीडानिवृत्तिर्भोजनरसास्वादनाद्भवेत् तदास्वादनं चास्य रसनेन्द्रियात् केवलज्ञानाद्वा ? रसनेन्द्रियाच्चेत् मतिज्ञानप्रसङ्गात् केवलज्ञानाभाव: स्यात् । केवलज्ञानाच्चेत् किं भोजनेन ? दूरस्थस्यापि त्रैलोक्योदरवर्तिनोरसस्य परिस्फुटं तेनानुभवसम्भवात् । कथं चास्य केवलज्ञानसम्भवो भुञ्जानस्य श्रेणीत: पतितत्वं प्रमत्तगुणस्थानवर्तित्वात् । अप्रमत्तो हि साधुराहार कथामात्रेणापि प्रमत्तो भवति । नार्हन्भुञ्जानोऽपीति महच्चित्रम् । अस्तु तावज्ज्ञानसम्भव: तथाप्यसौ केवलज्ञानेन । पिशिताद्यशुद्धद्रव्याणि पश्यन् कथं भुञ्जीत अन्तरायप्रसङ्गात्। गृहस्था अप्यल्पसत्त्वास्तानि पश्यन्तोऽन्तरायं कुर्वन्ति, किं पुनर्भगवाननन्तवीर्यस्तन्नकुर्यात् । तदकरणे वा तस्य तेभ्योऽपि हीनसत्त्वप्रसङ्गात् । क्षुत्पीडासम्भवे चास्य कथमनन्तसौख्यं स्यात् यतोऽनन्तचतुष्टयस्वामिताऽस्य । नहि सान्तरायस्यानन्तता युक्ता ज्ञानवत् । न च बुभुक्षा पीडैव न भवतीत्यभिधातव्यम् क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना इत्यभिधानात् । तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्रपञ्चत: प्ररूपणात् ॥६॥ |
आदिमति :
क्षुधा-भूख, पिपासा-प्यास, जरा-बुढ़ापा, वात-पित्त-कफ के विकार से उत्पन्न रोग, कर्मों के उदय से चारों गतियों में उत्पत्ति का होना जन्म है । अन्तक-मृत्यु, इहलोक-भय, परलोक-भय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय और आकस्मिक् भय ये सात भय हैं। जाति कुलादि के गर्व को स्मय-अहंकार कहते हैं । इष्ट वस्तु के प्रति प्रीति राग है, अनिष्ट वस्तु में अप्रीति का होना द्वेष है, शरीरादिक पर-वस्तुओं में ममकार बुद्धि का होना मोह कहलाता है । श्लोक में आये हुए च शब्द से चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, मद, स्वेद और खेद इन सात दोषों का ग्रहण होता है। इष्टवस्तु का वियोग होने पर उसे प्राप्त करने के लिए मन में जो विकलता होती है, उसे चिन्ता कहते हैं । अप्रिय वस्तु का समागम होने पर जो अप्रसन्नता होती है, वह अरति है । निद्रा का अर्थ प्रसिद्ध है । इसके पाँच भेद हैं- निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि। आश्चर्यरूप परिणाम को विस्मय कहते हैं । नशा को मद कहते हैं, पसीना को स्वेद कहते हैं और थकावट को खेद कहते हैं, ये सब मिलकर अठारह दोष कहलाते हैं। ये दोष जिनमें नहीं पाये जाते हैं, वे ही आप्त कहलाते हैं । यहाँ शङ्काकार कहता है कि आप्त के क्षुधा की बाधा होती है, क्योंकि भूख के अभाव में आहारादिक में प्रवृत्ति नहीं होगी और आहारादिक में प्रवृत्ति न होने से शरीर की स्थिति नहीं रह सकेगी । किन्तु आप्त के शरीर की स्थिति रहती है। अत: उससे आहार की भी सिद्धि हो जाती है । यहाँ पर निम्न प्रकार का अनुमान होता है -- केवली भगवान् की शरीर-स्थिति आहारपूर्वक होती है क्योंकि वह शरीर स्थिति है, हमारी शरीर-स्थिति के समान । जिस प्रकार हम छद्मस्थों का शरीर आहार के बिना स्थिर नहीं रहता, उसी प्रकार आप्त भगवान् का शरीर भी आहार के बिना स्थिर नहीं रह सकता । अत: उनके आहार अवश्य होता है और जब आहार है तो क्षुधा का मानना भी अनिवार्य होगा ? इस शंका के उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि आप आप्त भगवान् के आहार मात्र सिद्ध कर रहे हो या कवलाहार ? प्रथम पक्ष में सिद्ध-साधनता दोष आता है, क्योंकि सयोग केवली पर्यन्त तक के सभी जीव आहारक हैं ऐसा आगम में स्वीकार किया है । और दूसरे पक्ष में देवों की शरीरस्थिति के साथ व्यभिचार आता है क्योंकि देवों के सर्वदा कवलाहार का अभाव होने पर भी शरीर की स्थिति देखी जाती है। यदि कोई यह कहे कि देवों के मानसिक आहार होता है उससे उनके शरीर की स्थिति देखी जाती है तो उसका उत्तर यह है कि केवली भगवान् के भी कर्म तथा नोकर्म आहार होता है, उससे उनके शरीर की स्थिति रह सकती है । यदि यहाँ यह कहा जावे कि आप्त का शरीर हमारे शरीर के समान ही तो मनुष्य का शरीर है इसलिए जिस प्रकार हमारा शरीर आहार के बिना नहीं टिक सकता उसी प्रकार आप्त का शरीर भी आहार के बिना नहीं ठहर सकता । इसका उत्तर यह है कि यदि आहार की अपेक्षा आप्त भगवान् के शरीर से हमारे शरीर की तुलना की जाती है, तो जिस प्रकार केवली भगवान् के शरीर में पसीना आदि का अभाव है उसी प्रकार हम छद्मस्थों के शरीर में भी पसीना आदि का अभाव होना चाहिए, क्योंकि मनुष्यशरीरत्वरूप हेतु दोनों में विद्यमान है । इसके उत्तर में यदि यह कहा जाए कि हमारे शरीर में वह अतिशय नहीं पाया जाता, जिससे कि पसीना आदि का अभाव हो, परन्तु केवली भगवान् के तो वह अतिशय पाया जाता है जिसके कारण उनके शरीर में पसीना आदि नहीं होता, तो इसका उत्तर यह है कि जब केवली भगवान् के पसीना आदि के अभाव का अतिशय माना जाता है, तब भोजन के अभाव का अतिशय क्यों नहीं हो सकता ? दूसरी बात यह है कि जो धर्म हम छद्मस्थों में देखा जाता है, वह यदि भगवान् में भी सिद्ध किया जाता है तो जिस प्रकार हम लोगों का ज्ञान इन्द्रियजनित है उसी प्रकार भगवान् का ज्ञान भी इन्द्रियजनित मानना चाहिए। इसके लिए निम्न प्रकार का अनुमान किया जाता है- 'भगवते ज्ञानमिन्द्रियजं ज्ञानत्वात् अस्मदादिज्ञानवत्' भगवान् का ज्ञान इन्द्रियजनित है, क्योंकि वह ज्ञान है हमारे ज्ञान के समान । इस अनुमान से अरहन्त भगवान् के केवलज्ञानरूप अतीन्द्रियज्ञान असम्भव हो जाएगा और तब सर्वज्ञता के लिए जलाञ्जलि देनी पड़ेगी । यदि यह कहा जाए कि हमारे और उनके ज्ञान में ज्ञानत्व की अपेक्षा समानता होने पर भी उनका ज्ञान अतीन्द्रिय है तो इसका उत्तर यह है कि हमारे और उनके शरीरस्थिति की समानता होने पर भी उनकी शरीरस्थिति बिना कवलाहार के क्यों नहीं हो सकती ? अरहन्त भगवान् के असातावेदनीय का उदय रहने से बुभुक्षा-भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है, इसलिए भोजनादि में उनकी प्रवृत्ति होती है, यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि जिस वेदनीय के साथ मोहनीय कर्म सहायक रहता है, वही बुभुक्षा के उत्पन्न करने में समर्थ होता है । भोजन करने की इच्छा को बुभुक्षा कहते हैं। वह बुभुक्षा मोहनीय कर्म का कार्य है । अत: जिनके मोह का सर्वथा क्षय हो चुका है, ऐसे अरहन्त भगवान् के वह कैसे हो सकती है? यदि ऐसा न माना जाएगा तो फिर रिरंसा-रमण करने की इच्छा भी उनके होनी चाहिए । और उसके होने पर सुन्दर स्त्री आदि के सेवन का प्रसङ्ग भी आ जाएगा । उसके आने पर अरहन्त भगवान् की वीतरागता की समाप्त हो जाएगी। यदि यह कहा जाए कि विपरीत भावनाओं के वश से रागादिक की हीनता का अतिशय देखा जाता है अर्थात् रागादिक के विरुद्ध भावना करने से रागादिक में ह्रास देखा जाता है । केवली भगवान् के रागादिक की हानि अपनी चरम सीमा को प्राप्त है, इसलिए उनकी वीतरागता में बाधा नहीं आती ? इसका उत्तर यह है कि यदि ऐसा है तो उनके भोजनाभाव की परम प्रकर्षता क्यों नहीं हो सकती, क्योंकि भोजनाभाव की भावना से भोजनादिक में भी ह्रास का अतिशय देखा जाता है । जैसे जो पुरुष एक दिन में अनेक बार भोजन करता है, वही पुरुष कभी विपरीत भावना के वश से एक बार भोजन करता है। कोई पुरुष एक दिन के अन्तर से भोजन करता है और कोई पुरुष पक्ष, मास तथा वर्ष आदि के अन्तर से भोजन करता है । दूसरी बात यह भी है कि अरहन्त भगवान् के जो बुभुक्षा-सम्बन्धी पीड़ा होती है और उसकी निवृत्ति भोजन के रसास्वादन से होती है, तो यहाँ पूछना यह है कि वह रसास्वादन उनके रसना इन्द्रिय से होता है या केवलज्ञान से ? यदि रसना इन्द्रिय से होता है, ऐसा माना जाए तो मतिज्ञान का प्रसङ्ग आने से केवलज्ञान का अभाव हो जाएगा । इस दोष से बचने के लिए यदि केवलज्ञान से रसास्वाद माना जाए तो फिर भोजन की आवश्यकता ही क्या है, क्योंकि केवलज्ञान के द्वारा तो तीन लोक के मध्य में रहनेवाले दूरवर्ती रस का भी अच्छी तरह अनुभव हो सकता है । एक बात यह भी है कि भोजन करने वाले अरहन्त के केवलज्ञान हो भी कैसे सकता है, क्योंकि भोजन करते समय वे श्रेणी से पतित होकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती हो जायेंगे । जब अप्रमत्तविरत साधु आहार की कथा करने मात्र से प्रमत्त हो जाता है, तब अरहन्त भगवान् भोजन करते हुए भी प्रमत्त न हों, यह बड़ा आश्चर्य है । अथवा केवलज्ञान मान भी लिया जाय तो भी केवलज्ञान के द्वारा मांस आदि अशुद्ध द्रव्यों को देखते हुए वे कैसे भोजन कर सकते हैं ? क्योंकि अन्तराय का प्रसङ्ग आता है । अल्पशक्ति के धारक गृहस्थ भी जब मांसादिक को देखते हुए अन्तराय करते हैं तब अनन्तवीर्य के धारक अरहन्त भगवान् क्या अन्तराय नहीं करेंगे ? यदि नहीं करते हैं तो उनमें भी हीनशक्ति का प्रसङ्ग आता है। यदि अरहन्त भगवान् के क्षुधा सम्बन्धी पीड़ा होती है तो उनके अनन्त सुख किस प्रकार हो सकता है? जबकि वे नियम से अनन्त-चतुष्टय के स्वामी होते हैं । जो अन्तराय से सहित है, उसके ज्ञान के समान सुख की अनन्तता नहीं हो सकती। अर्थात् जिस प्रकार अन्तराय सहित ज्ञान में अनन्तता नहीं होती, उसी प्रकार अन्तराय सहित अरहन्त के सुख में अनन्तता नहीं हो सकती। 'क्षुधा पीड़ा ही नहीं है' ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि लोक में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि 'क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना' क्षुधा के समान दूसरी कोई शरीर पीड़ा नहीं है । इस विषय को यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है क्योंकि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में विस्तार से इसका निरूपण किया गया है । |
सदासुखदास :
संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है । 'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है । |