+ अमूढ़दृष्टि अंग -
कापथे पथि दु:खानां, कापथस्थेप्यसम्मति:
असम्पृक्ति-रनुत्कीर्ति-रमूढ़ा-दृष्टिरुच्यते ॥14॥
अन्वयार्थ : [दु:खानां] दु:खों के [पथि] मार्ग स्वरूप [कापथे] मिथ्या-दर्शनादि-रूप कुमार्ग में [कापथस्थेsपि] और कुमार्ग में स्थित जीव में [असम्मति:] मानसिक सम्मति से रहित [अनुत्कीर्ति:] वाचनिक प्रशंसा से रहित और [असम्पृक्ति:] शारीरिक संपर्क से रहित है, वह (सम्यग्दृष्टि का) [अमूढ़ादृष्टि:] अमूढ़दृष्टि अंग [उच्यते] कहा जाता है ॥१४॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अधुनासद्दर्शनस्यामूढदृष्टित्वगुणम्‍प्रकाशयन्नाह --
अमूढादृष्टिरपमूढत्वगुणविशिष्टंसम्यग्दर्शनम् । का ? असम्मति: नविद्यतेमनसासम्मति: श्रेय: साधनतयासम्मननंयत्रदृष्टौ । क्व ? कापथे कुत्सितमार्गेमिथ्यादर्शनादौ । कथम्भूते ? पथि मार्गे । केषां ? दु:खानाम् । नकेवलन्‍तत्रैवासम्मतिरपितु कापथस्थेऽपि मिथ्यादर्शनाद्याधारेऽपिजीवे । तथा असम्पृक्ति: नविद्यतेसम्पृक्ति: कायेननखच्छोटिकादिनाअङ्गुलिचालनेनशिरोधूननेनवाप्रशंसायत्र । अनुत्कीर्ति: नविद्यतेउत्कीर्तिरुत्कीर्तनंवाचासंस्तवनंयत्र।मनोवाक्कायैर्मिथ्यादर्शनादीनान्‍तद्वताञ्‍चाप्रशंसाकरणमूढंसम्यग्दर्शनमित्यर्थ:॥१४॥
आदिमति :

कुत्सित: पन्था कापथ: तस्मिन् कापथे कापथ का अर्थ खोटा मार्ग-कुमार्ग होता है । मिथ्यादर्शनादि संसार-भ्रमण के मार्ग होने से कुत्सितमार्ग कहलाते हैं । ऐसे कुमार्ग में अथवा कुमार्ग में स्थित मिथ्यादर्शनादि के आधार-भूत जीव के विषय में मन से ऐसी सम्मति नहीं करना कि यह कल्याण का मार्ग है । तथा शरीर से / नखों से चुटकी बजाकर, अङ्गुलियाँ चलाकर अथवा मस्तक हिलाकर उसकी प्रशंसा नहीं करना, तथा वचन से भी उसका संस्तवन नहीं करना, इस प्रकार मन-वचन-काय के द्वारा मिथ्यादर्शनादि की और उसके धारण करने वाले की प्रशंसा नहीं करना सम्यग्दर्शन का अमूढदृष्टि गुण है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।