+ निर्विचिकित्सा अंग -
स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते
निर्जुगुप्सा गुणप्रीति-र्मता निर्विचिकित्सिता ॥13॥
अन्वयार्थ : [स्वभावत:] स्वभाव से [अशुचौ] अपवित्र किन्तु [रत्नत्रय पवित्रिते] रत्नत्रय से पवित्र [काये] शरीर में [निर्जुगुप्सा] ग्लानि रहित [गुणप्रीति:] गुणों से प्रेम करना निर्विचिकित्सा अंग [मता] माना गया है ॥१३॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

सम्प्रतिनिर्विचिकित्सागुणंसम्यग्दर्शनस्यप्ररूपयन्नाह --
निर्विचिकित्सतामता अभ्युपगता । कासौ ? निजुर्गुप्सा विचिकित्साभाव: । क्व ? काये । किंविशिष्टे ? स्वभावतोऽशुचौ स्वरूपेणापवित्रिते । इत्थम्भूतेऽपिकाये रत्नत्रयपवित्रिते रत्नत्रयेणपवित्रितेपूज्यतांनीते । कुतस्तथाभूतेनिर्जुगुप्साभवतीत्याह - गुणप्रीति: यतोगुणेन-रत्नत्रयाधारभूत-मुक्तिसाधकत्वलक्षणेन-प्रीतिर्मनुष्य-शरीरमेवेदं-मोक्षसाधकंनान्यद्देवादि-शरीर-मित्यनुराग: । ततस्तत्रनिर्जुगुप्सेति ॥१३॥
आदिमति :

निर्गता विचिकित्सा यस्मात् स: निर्विचिकित्स:, तस्य भावो निर्विचिकित्सा विचिकित्सा ग्लानि को कहते हैं । जो ग्लानि से रहित है वह निर्विचिकित्स है । उसका जो भाव है, वह निर्विचिकित्सता है । मानव का यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है । क्योंकि माता-पिता के रज-वीर्य-रूप अशुद्ध धातु से निर्मित होने के कारण अपवित्र है । किन्तु यह अपवित्र शरीर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-रूप रत्नत्रय के द्वारा पवित्रता, पूज्यता को प्राप्त कराया जाता है । ऐसे शरीर में रत्नत्रय-रूप गुण के कारण प्रीति होती है । क्योंकि यह मनुष्य का शरीर ही रत्नत्रय की आधार-भूत मुक्ति का साधक बनता है । अन्य देवतादिक का शरीर मोक्ष का साधक नहीं हो सकता । इस विशिष्ट गुण के कारण गुणों में जो ग्लानि रहित प्रीति होती है, वह निर्विचिकित्सा नामक अंग है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।