+ स्थितिकरण अंग -
दर्शनाच्चरणाद्वापि, चलतां धर्मवत्सलै:
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै:, स्थितिकरणमुच्यते ॥16॥
अन्वयार्थ : [धर्मवत्सलै:] धर्म-स्नेही जनों के द्वारा [दर्शनात्] सम्यग्दर्शन से [वा] अथवा सम्यक् चारित्र से [अपि] भी [चलताम्] विचलित होते हुए पुरुषों का [प्रत्यवस्थापनम्] फिर से पहले की तरह स्थित किया जाना [प्राज्ञै:] विद्वानों के द्वारा [स्थितिकरणम्] स्थितिकरण अंग [उच्चते] कहा जाता है ॥१६॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अथस्थितीकरणगुणंसम्यग्दर्शनस्यदर्शयन्नाह --
स्थितीकरणम् अस्थितस्यदर्शनादेश्चलितस्यस्थितकरणंस्थितीकरणमुच्यते । कै: ? प्राज्ञैस्तद्विचक्षणै: । किन्‍तत् ? प्रत्यवस्थापनं दर्शनादौपूर्ववत्पुनरप्यवस्थापनम् । केषाम् ? चलताम् । कस्मात् ? दर्शनाच्चरणाद्वापि । कैस्तेषाम्‍प्रत्यवस्थापनम् ? धर्मवत्सलै: धर्मवात्सल्ययुक्तै: ॥१६॥
आदिमति :

स्थितीकरण में जो 'च्चि' प्रत्यय हुआ है वह 'अभूततद्भाव' अर्थ में हुआ है । इसलिए 'अस्थितस्य दर्शनादेश्चलितस्य स्थितिकरणं स्थितीकरणं' अर्थात् दर्शनादि से चलायमान होते हुए पुरुष को फिर से उसी व्रत में स्थित कर देना स्थितीकरण अङ्ग है । कोई जीव बाह्य आचरण का यथायोग्य पालन करता हुआ भी श्रद्धा से भ्रष्ट हो जाता है तथा कोई दृढ़ श्रद्धानी होता हुआ भी शारीरिक अशक्तता या प्रमादादि के कारण बाह्य आचरण से भ्रष्ट है । कोई जीव तीव्र पाप के कारण श्रद्धान-आचरण दोनों से भ्रष्ट है । धर्म में प्रेम रखने वाले जनों को चाहिए कि वे उन्हें फिर से उसी व्रतादि में स्थित करें । यह सम्यग्दर्शन का स्थितीकरण अंग है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।