प्रभाचन्द्राचार्य :
अथवात्सल्यगुणस्वरूपन्दर्शनेप्रकटयन्नाह- वात्सल्यंसधर्मिणिस्नेह: । अभिलष्यते प्रतिपाद्यते । कासौ ? प्रतिपत्ति: पूजाप्रशंसादिरूपा । कथम् ? यथायोग्यं योग्यानतिक्रमेण-अञ्जलिकरणाभिमुख-गमन-प्रशंसा-वचनोपकरण-सम्प्रदानादि-लक्षणा । कान्प्रति ? स्वयूथ्यान् जैनान्प्रति । कथम्भूता ? सद्भावसनाथा सद्भावेनावक्रतया-सहिताचित्त-पूर्विकेत्यर्थ: । अतएव अपेतकैतवा अपेतंविनष्टङ्कैतवंमायायस्या: ॥१७॥ |
आदिमति :
स्वस्य यूथ: स्वयूथ: तस्मिन् भवा: स्वयूथ्यास्तान् अपने सहधर्मी बन्धुओं के समूह में रहने वालों को स्वयूथ्य कहते हैं । इन सहधर्मियों के प्रति सद्भावना सहित अर्थात् सरलभाव से मायाचार रहित, यथायोग्य - हाथ-जोडऩा, सम्मुख-जाना, प्रशंसा के वचन कहना तथा योग्य उपकरण आदि देकर जो आदर सत्कार किया जाता है, वह वात्सल्य-गुण कहलाता है । वत्सलस्य भाव: कर्म वा वात्सल्यम् वात्सल्य का अर्थ सहधर्मी भाइयों के प्रति धार्मिक स्नेह का होना । |
सदासुखदास :
संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है । 'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है । |