+ प्रभावना अंग -
अज्ञानतिमिरव्याप्ति-मपाकृत्य यथायथम्
जिनशासनमाहात्म्य-प्रकाश: स्यात्प्रभावना ॥18॥
अन्वयार्थ : [अज्ञान] अज्ञानरूपी [तिमिर] अंधकार के [व्याप्तिम्] विस्तार को [अपाकृत्य] दूर कर [यथायथम्] अपनी शक्ति के अनुसार [जिनशासनमाहात्म्य] जिनशासन के माहात्म्य का [प्रकाश:] प्रकाश फैलाना [प्रभावना] प्रभावना-अंग [स्यात्] है ॥१८॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अथप्रभावनागुणस्वरूपन्‍दर्शनस्यनिरूपयन्नाह-
प्रभावना स्यात् । कासौ ? जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: । जिनशासनस्य-माहात्म्य-प्रकाशस्तुतपोज्ञानाद्यतिशयप्रकटीकरणम् । कथम् ? यथायथं स्नपन-दान-पूजा-विधान-तपोमन्त्र-तन्त्रादिविषये-आत्मशक्त्यनतिक्रमेण । किङ्‍कृत्वा ? अपाकृत्य निराकृत्य । काम् ? अज्ञानतिमिरव्याप्तिं जिनमतात्परेषांयत्स्नपनदानादिविषयेऽज्ञानमेवतिमिरमन्धकारन्‍तस्यव्याप्तिम्‍प्रसरम् ॥१८॥
आदिमति :

जैनशासन के माहात्म्य का प्रकाशन एवं उसके तप-ज्ञानादि का अतिशय प्रकट करना चाहिये तथा जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों में अभिषेक, दान, पूजा, विधान, तप, मन्त्र-तन्त्रादि के विषय में अपनी आत्मशक्ति को न छिपाकर इनके विषय में जो अज्ञानरूप अन्धकार फैल रहा है, उसको दूर करते हुए तप-ज्ञानादि का अतिशय प्रकट करना प्रभावना अङ्ग कहलाता है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।