+ करणानुयोग -
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च
आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ॥3॥
अन्वयार्थ : [तथा] प्रथमानुयोग की तरह [मति:] मननरूप श्रुतज्ञान, [लोकालोकविभक्ते:] लोक और अलोक के विभाग को, [युगपरिवृत्ते:] युगों के परिवर्तन [च] और [चतुर्गतीनां] चारों गतियों के लिये [आदर्शम्] दर्पण के [इव] समान करणनुयोग को भी [अवैति] जानता है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

तथा -
तथा तेन प्रथमानुयोगप्रकारेण । मतिर्मननं श्रुतज्ञानम् । अवैति जानाति । कम् ? करणानुयोगं लोकालोकविभागं पञ्चसङ्ग्रहादिलक्षणम् । कथम्भूतमिव ? आदर्शमिव यथा आदर्शो दर्पणो मुखादेर्यथावत्स्वरूपप्रकाशकस्तथा करणानुयोगोऽपि स्वविषयस्यायं प्रकाशक: । लोकालोकविभक्ते: लोक्यन्ते जीवादय: पदार्था यत्रासौ लोकस्त्रिचत्वारिंशदधिकशतत्रयपरिमितरज्जुपरिमाण:, तद्विपरीतोऽलोकोऽनन्तमानावच्छिन्न शुद्धाकाशस्वरूप: तयोर्विभक्तिर्विभागो भेदस्तस्या: आदर्शमिव । तथा युगपरिवृत्ते: युगस्य कालस्योत्सर्पिण्यादे: परिवृत्ति: परावर्तनं तस्या आदर्शमिव। तथा चतुर्गतीनां च नरकतिर्यग्मनुष्यदेवलक्षणानामादर्शमिव ॥३॥
आदिमति :

जिस प्रकार सम्यग्श्रुतज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है, उसी प्रकार करणानुयोग को भी जानता है । करणानुयोग में लोक-अलोक का विभाग तथा पंचसंग्रह आदि भी समाविष्ट हैं । यह करणानुयोग दर्पण के समान है । अर्थात् जिस प्रकार दर्पण मुख आदि के यथार्थ स्वरूप का दर्शक है, उसी प्रकार करणानुयोग भी स्व-विषय का प्रकाशक होता है । जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । यह लोक तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण है । इसके विपरीत अनन्त प्रमाणरूप जो शुद्ध-परद्रव्यों के संसर्ग से रहित आकाश है, वह अलोक कहलाता है ।

उत्सर्पिण-अवसर्पिणी आदि काल के भेदों को युग कहते हैं । इनमें सुखमादि छह काल का परिवर्तन होता है, वह युग-परिवर्तन है । नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवादि लक्षण वाली चार गतियाँ हैं । करणानुयोग इन सबका विशद् वर्णन करने के लिए दर्पण के समान है ।