+ चारित्र का लक्षण -
हिंसानृतचौर्येभ्यो, मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च
पापप्रणालिकाभ्यो, विरति: संज्ञस्य चारित्रम् ॥49॥
अन्वयार्थ : हिंसा, [नृत] झूठ, चोरी, [मैथुन] कुशील और परिग्रह ये पांच [पापप्रणालिकाभ्यो] पाप की नाली के समान पापों के आने के कारण हैं, इनसे विरति का [संज्ञस्य] नाम ही चारित्र है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

'चारित्रं' भवति । कासौ ? 'विरति' व्र्यावृत्ति: । केभ्य: 'हिंसानृतचौर्येभ्य:' ? हिंसादीनां स्वरूपकथनं स्वयमेवाग्रे ग्रन्थकार: करिष्यति । न केवलमेतेभ्य एव विरति :- अपि तु 'मैथुनसेवापरिग्रहाभ्याम्' । एतेभ्य: कथम्भूतेभ्य:? 'पापप्रणालिकाभ्य:' पापस्य प्रणालिका इव पापप्रणालिका आस्रवद्वाराणि ताभ्य: । कस्य तेभ्यो विरति: ? 'संज्ञस्य' सम्यग्जानातीति सञ्ज्ञ: तस्य हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञानवत: ॥४९॥
आदिमति :

हिंसादि पापों के त्याग से चारित्र होता है । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रह इनके स्वरूप का कथन ग्रन्थकार आगे करेंगे, क्योंकि ये पापरूप गन्दे पानी को बहाने के लिए गन्दे नालों के समान हैं, इसलिए हेय और उपादेय तत्त्वों के ज्ञाता इन पापों से विरक्त होते हैं ।