+ अहिंसा अणुव्रत -
सङ्‍कल्पात्कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान्
न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः ॥53॥
अन्वयार्थ : [यत्] जो [योगत्रयस्य] मन-वचन-काय के [कृतकारितमननात्] कृत, कारित, अनुमोदना रूप [सङ्‍कल्पात्] संकल्प से [चर] त्रस [सत्त्वान्] जीवों को [न हिनस्ति] नहीं मारता है [तत्] उसे, [निपुणा:] गणधर आदिक [स्थूलवधात्] स्थूल-हिंसा से [विरमणम्] विरक्त होना अर्थात् अहिंसाणुव्रत [आहु] कहते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

[[चरसत्त्वान्]] त्रसजीवान् । [[यन्न हिनस्ति]] । तदाहु: [[स्थूलवधाद्विरमणम्]] । के ते ? [[निपुणा:]] हिंसादि-विरतिव्रतविचारदक्षा: । कस्मान्न हिनस्ति ? [[सङ्कल्पात्]] सङ्कल्पं हिंसाभिसन्‍धिमाश्रित्य । कथम्भूतात् सङ्कल्पात् ? [[कृतकारितानुमननात्]] कृतकारितानुमननरूपात् । कस्य सम्बन्धिन: ? [[योगत्रयस्य]] मनोवाक्कायत्रयस्य । अत्र कृतवचनं कर्तु: स्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थम् । कारितानुविधानं परप्रयोगोक्षमनुवचनम् । अनुमननवचनं प्रयोजकस्य मानसपरिणामप्रदर्शनाथम् । तथा हि -- मनसा चरसत्त्वहिंसां स्वयं न करोमि, चरसत्त्वान् हिनस्मीति मन: सङ्कल्पं न करोमीत्यर्थ: । मनसा चरसत्त्वहिंसामन्यं न कारयामि, चरसत्त्वान् हिंसय-हिंसयेति मनसा प्रयोजको न भवामीत्यर्थ: । तथा अन्यं चरसत्त्वहिंसां कुर्वन्तं मनसा नानुमन्ये, सुन्दरमनेन कृतमिति मन: सङ्कल्पं न करोमीत्यर्थ: । एवं वचसा स्वयं चरसत्त्वहिंसां न करोमि चरसत्त्वान् हिनस्मीति स्वयं वचनं नोच्चारयामीत्यर्थ: । वचसा चरसत्त्वहिंसां न करोमि चरसत्त्वान् हिनस्मीति स्वयं वचनं नोच्चारयामीत्यर्थ: । वचसा चरसत्त्वहिंसां न कारयामि चरसत्त्वान् हिंसय हिंसयेति वचनं नोच्चारयामीत्यर्थ: । तथा वचसा चरसत्त्वहिंसां कुर्वन्तं नानुमन्ये, साधुकृतं त्वयेति वचनं नोच्चारयामीत्यर्थ: । तथा कायेन चरसत्त्वहिंसा न करोमि, चरसत्त्वहिंसने दृष्टिमुष्टिसन्धाने स्वयं कायव्यापारं न करोमीत्यर्थ: । तथा कायेन चरसत्त्वहिंसां न कारयामि, चरसत्त्वहिंसने कायसञ्ज्ञया परं न प्रेरयामीत्यर्थ: । तथा चरसत्त्वहिंसां कुर्वन्तमन्यं नरवच्छोटिकादिना कायेन नानुमन्ये । इत्युक्तमहिंसाणुव्रतम् ॥५३॥
आदिमति :

'मैं इस जीव को मारूँ' इस अभिप्राय से जो हिंसा की जाती है, उसे संकल्प कहते हैं । यह संकल्प मन, वचन और काय इन तीनों योगों की कृत, कारित तथा अनुमोदनारूप परिणति से होता है। किसी कार्य को स्वतन्त्ररूप से स्वयं करना कृत है । दूसरे से कराना कारित है और कराने वाले के लिए अपने मानसिक परिणामों को प्रकट करते हुए अनुमति के वचन कहना अनुमोदना है । इस प्रकार यह कृत-कारित-अनुमोदना मन, वचन व कायरूप तीनों योगों से प्रकट होती है। यथा-
  1. मैं मन से त्रस जीवों की हिंसा स्वयं नहीं करता हूँ अर्थात् मैं त्रस जीवों को मारूँ ऐसा मन से संकल्प नहीं करता हूँ ।
  2. दूसरों से त्रस हिंसा नहीं कराता हूँ अर्थात् 'तुम त्रस जीवों को मारो' ऐसा मन से संकल्प नहीं करता हूँ ।
  3. त्रस जीवों की हिंसा करते हुए किसी जीव की मन से अनुमोदना नहीं करता हूँ अर्थात् 'इसने यह कार्य अच्छा किया' ऐसा मन से संकल्प नहीं करता हूँ ।
  4. इसी प्रकार वचन से मैं स्वयं त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता हूँ अर्थात् 'मैं त्रस जीवों को मारूँ' ऐसे वचन नहीं बोलता हूँ ।
  5. वचन से दूसरों के द्वारा त्रस जीवों की हिंसा नहीं कराता हूँ अर्थात् 'तुम त्रस जीवों को मारो' ऐसे वचनों का प्रयोग नहीं करता हूँ ।
  6. तथा त्रस जीवों को हिंसा करते हुए अन्य पुरुष की वचन से अनुमोदना नहीं करता हूँ अर्थात् 'तुमने बहुत अच्छा किया' ऐसा वचनों से उच्चारण नहीं करता हूँ ।
  7. काय से त्रस जीवों की स्वयं हिंसा नहीं करता हूँ अर्थात् स्वयं आँख से संकेत करना मुी बाँधना आदि शारीरिक व्यापार नहीं करता हूँ ।
  8. शरीर से दूसरे के द्वारा त्रस जीवों की हिंसा नहीं कराता हूँ अर्थात् शरीर के संकेत से दूसरे को प्रेरित नहीं करता हूँ ।
  9. त्रस जीवों की हिंसा करते हुए किसी अन्य पुरुष को चुटकी बजाना आदि शरीर के अन्य किसी व्यापार से अनुमति नहीं देता हूँ ।
इन नौ कोटि से त्रस हिंसा का त्याग करना अहिंसाणुव्रत है ॥५३॥