+ अचौर्याणुव्रत -
निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं
न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्य्यादुपारमणम् ॥57॥
अन्वयार्थ : [निहितं] रखे हुए [वा] या [पतितं] पड़े हुए अथवा [सुविस्मृतं] बिल्कुल भूले हुए [अविसृष्टं] बिना दिये हुए [परस्वम] दूसरे के धन को [न हरति] न स्वयं लेता है और [न च दत्ते] न किसि दूसरे को देता है वह [अकृशचौर्य्यात्] स्थूलचोरी का [उपारमणम्] परित्याग अर्थात् अचौर्याणुव्रत है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अधुना चौर्यविरत्यणुव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाह --
अकृशचौर्यात् स्थूलचौर्यात् । उपारमणं तत् । यत् न हरति न गृह्णाति । किं तत् ? परत्वं परद्रव्यम् । कथम्भूतम् ? निहितं वा धृतम् । तथा पतितं वा । तथा सुविस्मृतं वा अतिशयेन विस्मृतम् । वा शब्द: सर्वत्र परस्परसमुच्चये । इत्थम्भूतं परस्वम् अविसृष्टम् अदत्तं यत्स्वयं न हरति न दत्तेऽन्यस्मै तदकृशचौर्यादुपारमणं प्रतिपत्तव्यम् ॥
आदिमति :

अकृशचौर्य का अर्थ स्थूल चोरी है । दूसरे का द्रव्य रखा हुआ हो, पड़ा हो, भूला हुआ हो, वा शब्द सर्वत्र परस्पर सम्मुचय के लिए है ऐसे धन को बिना दिये न स्वयं लेता है और न उठाकर अन्य को दे देता है। इस स्थूल चोरी से उपारमणं- निवृत्त होना यह अचौर्याणुव्रत है ।