प्रभाचन्द्राचार्य :
अधुना चौर्यविरत्यणुव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाह -- अकृशचौर्यात् स्थूलचौर्यात् । उपारमणं तत् । यत् न हरति न गृह्णाति । किं तत् ? परत्वं परद्रव्यम् । कथम्भूतम् ? निहितं वा धृतम् । तथा पतितं वा । तथा सुविस्मृतं वा अतिशयेन विस्मृतम् । वा शब्द: सर्वत्र परस्परसमुच्चये । इत्थम्भूतं परस्वम् अविसृष्टम् अदत्तं यत्स्वयं न हरति न दत्तेऽन्यस्मै तदकृशचौर्यादुपारमणं प्रतिपत्तव्यम् ॥ |
आदिमति :
अकृशचौर्य का अर्थ स्थूल चोरी है । दूसरे का द्रव्य रखा हुआ हो, पड़ा हो, भूला हुआ हो, वा शब्द सर्वत्र परस्पर सम्मुचय के लिए है ऐसे धन को बिना दिये न स्वयं लेता है और न उठाकर अन्य को दे देता है। इस स्थूल चोरी से उपारमणं- निवृत्त होना यह अचौर्याणुव्रत है । |